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________________ भगवती मूत्र-म. ७ ऊ. १. रथमूसल संग्राम १२०७ आमुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणु परामुसइ, धणुं परामुसित्ता, उमुं परामुमड़, उग्मुं परामुसित्ता आययकण्णाययं उसुं करेइ, आययकण्णाययं उसुं करेत्ता तं पुरिमं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेइ । कठिन शब्दार्थ--अभिग्गह-अभिग्रह (प्रतिज्ञा), पहण--मार-प्रहार कर, पडिहत्तए-प्रतिहत करना, पडिरहं-प्रतिरथ--रथ के सामने, मिसिमिसेमाणेक्रोधाग्नि से दीप्त, उसं-बाण को. आययकण्णाययं-कान तक खींचकर, गाढप्पहारी करेइ-जोरदार प्रहार करता है, एगाहच्च-एकदम, कूडाहच्चं-विलम्ब रहित । भावार्थ-युद्ध में प्रवृत्त होने के पूर्व उसने यह नियम लिया कि 'रथमूसल संग्राम में युद्ध करते हुए मुझ पर जो पहले वार करेगा, उसी को मारना मुझे योग्य है, दूसरे को नहीं। इस प्रकार का अभिग्रह करके वह संग्राम करने लगा। संग्राम करते हुए वरुण-नागनत्तुआ के रथ के सामने, उसी के समानवय वाला, उसी के समान त्वचा वाला और उसी के समान अस्त्रशस्त्रादि उपकरणों वाला एक पुरुष, रथ में बैठकर आया और उसने वरुण नागनत्तुआ से कहा कि-"हे वरुणनागनत्तुआ ! तूं मुझ पर प्रहार कर तूं मुझ पर प्रहार कर।" तब वरुण-नागनत्तुआ ने उस पुरुष से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रिय ! जबतक मुझ पर पहले कोई प्रहार नहीं करेगा, तबतक उस पर प्रहार करना मुझे योग्य नहीं है । इसलिये पहले पहले तू ही मुझ पर प्रहार कर।" जब वरुण-नागनत्तुआ ने उस पुरुष से ऐसा कहा, तब कुपित एवं क्रोधाग्नि से धमधमाते हुए उस पुरुष ने धनुष उठाया, उस पर बाण चढ़ाया, अमुक आसन से अमुक स्थान पर रह कर धनुष को कान तक लम्बा खींचा और वरुणनागनत्तुआ पर तत्काल प्रबल प्रहार किया। उस प्रहार से घायल बने हुए वरुणनागनत्तुआ ने कुपित होकर धनुष उठाया, उस पर बाण चढ़ाया और उस बाण को कान पर्यन्त खोंचकर उस पुरुष पर फेंका। इस प्रहार से जिस प्रकार पत्थर के टुकडे टुकडे हो जाते हैं, उसी प्रकार वह पुरुष जीवन से रहित हो गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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