________________
भगवती सूत्र -श. ७ उ. ७ काम-भोग
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! उपयोग पूर्वक चलते, बंठते यावत् सोते तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, और पादप्रोञ्छन (रजोहरण) आदि लेते हुए और रखते हुए संवृत (संवरयुक्त) अनगार को ऐपिथिकी क्रिया लगती है या साम्परायिकी क्रिया लगती है ?
१ उत्तर-हे गौतम ! संवरयुक्त अनगार को यावत् ऐर्यापथिको क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती।
प्रश्न-हे भगवन् ! आप किस कारण कहते हैं कि संवरयुक्त यावत् अणगार को ऐपिथिको क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती ?
उत्तर--हे गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न हो गये हैं, उसको ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है । इसी प्रकार ' यावत् सूत्र विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले को साम्परायिकी क्रिया लगती है । वह संवृत अनगार यथासूत्र (सूत्र के अनुसार) प्रवत्ति करता है । इस कारण हे गौतम ! उसको यावत् साम्परायिको क्रिया नहीं लगती।
विवेचन--इस विषय का विवेचन पहले दिया जा चुका है । यहाँ 'वोच्छिण्ण' (व्यवच्छिन्न-व्युच्छिन्न) शब्द का अर्थ अनुदय प्राप्त (जो उदय में नहीं आय हुए हैं, किन्तु सत्ता में रहे हुए हैं, अभी केवल उपशमन ही किया गया है) और नष्ट (सर्वथा क्षीण) हुए समझना चाहिये । क्योकि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी जीव को केवल एपिथिको क्रिया लगती है। इनमें से ग्यारहवें गुणस्थानवी जीव के क्रोधादि कषाय का उपशमन हुआ है और बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव के क्रोधादि कषाय का सर्वथा क्षय हो चुका है।
काम-भोग
२ प्रश्न-रूवी भंते ! कामा, अरूवी कामा ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org