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________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐयपिथिक और साम्परायिक बन्ध यावत् सर्व से सर्व को बांधते हैं। विवेचन-बन्ध-जिस प्रकार कोई व्यक्ति, अपने शरीर पर तेल लगाकर धूली में लेटे, तो धूली उसके शरीर पर चिपक जाती है। उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है, तब जिम आकाश में आत्मा के प्रदेश है, वहीं के अनन्त अनन्त कम योग्य पुद्गल जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ बन्ध जाते हैं । कर्म और आत्म-प्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं, जैसे-दूध और पानी तथा आग और लोहपिण्ड परस्पर एक होकर मिल जाते हैं। इमी प्रकार आत्मा के साथ कर्मों का जो सम्बन्ध होता है, वही 'बन्ध' कहलाता है । यद्यपि बन्ध के द्रव्य-बन्ध और भाव-बन्ध-ऐसे दो भेद भी हैं । खोड़ा-बेड़ी आदि का बन्ध-'द्रव्य-बन्ध' कहलाता है और कर्म-बन्ध 'भाव-बन्ध' कहलाता है। यहाँ भाव-बन्ध रूप कर्मबन्ध का प्रकरण है। विवक्षा विशेष से यहाँ कर्म बन्ध के दो भेद कहे गये हैं। यथा-ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध और साम्परायिक कर्म-बन्ध । योगों के निमित्त से होने वाले बन्ध को ऐपिथिक बन्ध कहते हैं । यह केवल सातावेदनीय कर्म का होता है। . सम्पराय-जिनसे जीव संसार में परिभ्रमण करे, उनको 'सम्पराय' कहते हैं। सम्पराय का अर्थ है-कषाय' । कषायों के निमित्त से होने वाले कर्म-बन्ध को 'साम्परायिक कर्म-बन्ध' कहते हैं। यह पहले गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान. तक होता है। ऐपिथिक कर्म का बन्ध-नरयिक, तिर्यञ्च और देव को नहीं होता, केवल मनुष्य के ही होता है। मनुष्यों में भी ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी मनुष्यों के ही होता है। जिसने पहले. ऐर्यापथिक कर्म का बन्ध किया हो, उसे 'पूर्व प्रतिपन्न' कहते हैं। अर्थात् जो ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध के दूसरे, तीसरे आदि समय में वर्तमान हो. ऐसे पुरुष और स्त्रियां बहुत होती हैं, इसलिये इसका भंग नहीं बनता, क्योंकि दोनों प्रकार के केवली (पुरुष केवली और स्त्री केवली) सदा पाये जाते हैं । ऐर्यापथिक कर्म के बन्धक वीतराग उपशान्तमोह, क्षीण-मोह और सयोग-केवली गुणस्थान में रहने से होते हैं । जो जीव. एर्यापथिक कर्म-बन्ध के प्रथम समय में वर्तमान होते हैं. उनको 'प्रति. पदधमान' कहते हैं । इनका विरह हो सकता है । इसलिये इनके असंयोगी चार भंग और द्वि-संयोगी चार भंग-ये.आठ भंग होते हैं। ... ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध के विषय में जो स्त्री पुरुष आदि का कथन किया गया है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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