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________________ १४४६ भगवती सूत्र - श. ८ उ८ ऐर्यापथिक और साम्परायिक बन्ध वह लिंग की अपेक्षा समझना चाहिये, वेद की अपेक्षा नहीं। क्योंकि ऐर्यापथिक कर्म-बंधक जीव, उपशान्तवेदी या क्षोणवेदी ही होते हैं । पूर्व प्रतिपन्नक वेद रहित जीव, सदा बहुत ही होते हैं। इसलिये उनके विषय में बहुवचन का उत्तर ही दिया गया है। प्रतिपदयमान वेद रहित जीवों में विरह पाया जाता है । अतः उनमें एकत्व आदि का सम्भव होने से एकवचन और बहुवचन को लेकर यहाँ दो विकल्प कहे गये हैं । जो जीव, गत-काल में स्त्री था, अब वर्तमान काल में अवेदी हो गया है, उसे 'स्त्री पच्छाकडा' (स्त्री पश्चात्कृत ) कहते हैं । इसी तरह 'पुरुषपच्छाकडा' और 'नपुंसकपच्छा'कडा' का अर्थ भी जानलेना चाहिये । वेद रहित जीवों की अपेक्षा यहाँ प्रश्न किया गया है, जिनमें एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा असंयोगी छह भंग हैं, द्विक-संयोगी बारह भंग है, और त्रिक-संयोगी आठ भंग हैं । ये कुल २६ भंग हैं। इनसे प्रश्न किया गया है और इन २६ भंगों द्वारा ही उत्तर दिया गया है। 1 इसके पश्चात् पथिक कर्म-बन्ध को लेकर ही भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी आठ भंगों द्वारा प्रश्न किया गया है। उसका उत्तर 'भवाकर्ष' और 'ग्रहणाकर्ष' की अपेक्षा दिया गया है । अनेक भवों में उपशम श्रेण्यादि की प्राप्ति द्वारा एग्रपथिक कर्म पुद्गलों का आकर्ष अर्थात् ग्रहण करना 'भवाकर्ष' कहलाता है । और एक भव में ऐर्यापथिक कर्म पुद्गलों का ग्रहण करना 'ग्रहणाकर्ष' कहलाता है । भवाकर्ष में आठों भंग पाये जाते हैं । उनमें से पहला भंग है - 'वाँधा था, बाँधता है, बांधेगा' - यह भंग उस जीव में पाया जाता है जिसने गत काल ( पूर्व भव) में उपशम श्रेणी की थी। उस समय ऐर्यापथिक कर्म बाँधा था । वर्तमान में उपशम श्रेणी करता है उस समय बाँधता है और आगामी भव में श्रेणी करेगा उस समय बांधेगा । (२) दूसरा भंग है - बाँधा था, बाँधता है, नहीं बांधेगा। यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशम श्रेणी की थी, उसमें ऐर्यापथिक कर्म वाँधा था। वर्तमान में क्षपक श्रेणी में बाँधता है और फिर उसी भव में मोक्ष चला जायेगा, इसलिये आगामी काल में नहीं बाधेगा । (३) तीसरा भंग है – बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा । यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशम श्रेणी की थी उसमें बांधा था । वर्तमान भव में श्रेणी नहीं करता, इसलिये ऐर्यापथिक कर्म नहीं बांघता, किंतु आगामी भव में उपशम-श्रेणी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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