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________________ १४३४ . भगवती सूत्र-श. ८ उ ८ व्यवहार के भेद ३ आज्ञा व्यवहार-दो गीतार्थ साधु, दूसरे से अलग दूर देश में रहे हुए हों और जंघाबल क्षीण हो जाने से वे विहार करने में असमर्थ हों। उनमें से किसी एक को प्रायश्चित आने पर वह मुनि, अगीतार्थ शिष्य को, आगम का सांकेतिक गूढ़ भाषा में अपने अतिचार दोष कहकर या लिखकर उसे अन्य गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और उसके द्वारा आलोचना करता है । गूढ़ भाषा में कही हुई आलोचना सुनकर वे गीतार्थमुनि, आलोचना का संदेश लाने वाले के द्वारा ही गूढ़ भाषा में अतिचार की शुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्त देते हैं । यह आज्ञा-व्यवहार है। ४ धारणा व्यवहार-किमी गीतार्थ संविग्न मुनि ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जिस अपराध में जो प्रायश्चित दिया है, उसकी धारणा से, वैसे अपराध में उसी प्रायश्चित्त का प्रयोग करना 'धारणा व्यवहार' है । वैयावृत्य करने आदि से जो साधु गच्छ का उपकारी हो, वह यदि सम्पूर्ण छेद सूत्र सीखाने योग्य न हो. तो उसे गुरु महाराज कृपापुवक उचित प्रायश्चित्त पदों का कथन करते हैं । उक्त माधु ‘का गुरु महाराज से कहे हुए उन प्रायश्चित्त का धारण करना 'धारणा व्यवहार' है। ५ जीत म्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना का और संहनन धनि आदि की हानि का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह 'जीत व्यवहार' है। अथवा-किसी गच्छ में कारण विशप से सूत्र से अतिरिक्त प्रायश्चित्त की प्रवृति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया, तो वह प्रायश्चित्त ‘जीत व्यवहार' कहा जाता है। __अथवा-अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा की हुई मर्यादा 'जीत व्यवहार' कहलाता है । जो कि अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचरित हो, असावदय हो और आगम से अबाधित हो। - इन पांच व्यवहारों में से यदि व्यवहर्ता के पास आगम हो, तो उसे आगम से व्यवहार चलाना चाहिये । आगम में भी केवलज्ञान, मनःपर्यय नान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व और नव पूर्व, ये छह भेद हैं । इनमें पहले केवलज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिये । पिछले मनःपर्याय आदि से नहीं । इसी प्रकार उत्तरोत्तर समझना चाहिये । आगम-व्यवहार के अभाव में श्रुत-व्यवहार से, श्रुत व्यवहार के अभाव में आज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा मे और धारणा के अभाव में जीत-व्यवहार से प्रत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार का प्रयोग होना चाहिये । - ऊपर कहे अनुसार सम्यग्रूपेण, पक्षपात रहित व्यवहारों का प्रयोग करता हुआ माधु, भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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