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भगवती सूत्र--ग. ८ उ. ज्ञान दर्शनादि लब्धि
कहते हैं।
विशुद्धयमान और संक्लिग्यमान के भेद से सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र के दो भेद हैं। क्षपक-श्रेणी और उपशम-श्रेणी पर चढ़ने वाले साध के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने के कारण उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र-विशुद्धचमान' कहलाता है। उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं, इसलिये उनका मूक्ष्म-सम्पराय चारित्र ‘संक्लिश्यमान' कहलाता है।
(५) यथाख्यात चारित्र-कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार रहित, पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र-'यथाख्यात चारित्र' कहलाता है, अथवा अकषायी साधु का (जो निरनिचार एवं यथार्थ होता है) चारित्र-'यथाख्यान चारित्र' कहलाता है ।
छद्मस्थ और केवली के भद से यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं, अथवा उपयांतमोह और क्षीण-मोह. या प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद में इसके दो भेद हैं।
मयोगी केवली और अयोगी केवली के भेद से-केवली यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं।
(४-८) चारित्राचारित्र लब्धि अर्थात् देश-विरति लब्धि । यहां मूल गुण और उत्तरग तथा उनके भेदों को विवक्षा नहीं की है, किन्तु अप्रत्याख्यान कषाय के क्षयोपशमजन्य परिणाम मात्र की विवक्षा की गई है । इसलिये यह लब्धि एक ही प्रकार की कही गई है। इसी प्रकार दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि और उपभोगलब्धि के भी भेदों की विवक्षा न करने से ये लब्धियाँ भी एक एक प्रकार की हा कही गई हैं। .. (९) वीर्यलब्धि के तीन भद कहे गये हैं। उनका अर्थ इस प्रकार है-बालवीर्य
लब्धि-बाल अर्थात् संयम रहित जीव की असंयमरूप जो प्रवृत्ति होती है, उसे-'बालवीर्य लब्धि' कहते हैं । यह लब्धि, चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है। पण्डितवीर्य लब्धि -जिससे संयम के विषय में प्रवृत्ति होती है, उसे-'पण्डित वार्यलब्धि' कहते हैं और जिससे देश-विरति में प्रवृत्ति होती है, उसे 'बाल पण्डित वीर्यलन्धि' कहते हैं ।
(१०) इन्द्रियलब्धि के श्रोत्रेन्द्रियादि पांच भेद हैं, जो ऊपर बतला दिये गये हैं। .
· ज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी होते हैं और ज्ञान के अलब्धि वाले (ज्ञान लब्धि रहित) जीव अज्ञानी होते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान लब्धिवाले जीवों में चार ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । क्योंकि केवली के आभिनिवोधिक ज्ञान नहीं होता । मतिज्ञान की अलब्धिवाले .
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