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मावती सूत्र.उ. ३ आठ पृश्वियों का उल्लेख
ऐसा कहकर गौतमसाला पावत विधाने हे का
‘विवेचन-चरम का अर्थ है अन्तवर्ती । वह अन्तवर्तीपना अन्य द्रव्य की अपेक्षा समझना चाहिये । जैसे-पूर्व शरीर की अपेक्षा चरम शरीरी । अचरम का अर्थ हैं मध्यवर्ती। यह अचरः पना भी आपति का है अर्थात् अन्य तस्य की अपेक्षा से हैं। जैसे अन्तिम शरीर को माध्यम PTETTE ARTE
रत्नप्रभा पृथ्वी के सम्बन्ध में एकवचनान्त और बहुवचनान्त चरम और अचरम के चार प्रश्न किये गये हैं । इसी प्रकार यात्मात प्रदेश और चरमान्त प्रदेश के दो प्रश्न किसे पोह। ये मत मिल्सार छह सदन हुम भगवान ने उत्तर दिया कि- 'हे मौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी चरम भी नहीं है और अचरम भी नहीं है ।' चरम का अर्थ है-'पर्यन्तवर्ती' औरणवर की अह-मध्यमवरमपना और अचरमपना अन्य वस्तु सापेक्ष है। यहाँ अन्य वस्तु का मन नहीं किया गया है। अतः रत्नप्रभा पृथ्वी जाम. या अचरम नहीं कही जा सकती और इसी कारण बहुवचनान्त 'चरम, अचरम, चरमान्ति प्रदेश, अचरमन्ति प्रदेश भी नहीं कहे जा सकते । रत्नप्रभा पृथ्वी असंन्यात प्रदेशावगाढ़ है। इसलिये उसके अनेक अवयवों की अपेक्षा वे बरमरूप कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार अन्यवर्ती अवयवों की अपेक्षा वे अचरम रूप भी कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार बहुवचनान्त चरम रूप, अचरम रूप, चरमान्त प्रदेश रूप और अचूरमान्त प्रदेशाप कहे जा सकते हैं, क्योंकि रत्मप्रभा के अन्त-भाग में अवस्थित खण्डों को बहुत्व रूप से विवक्षा की जाय, तो 'बहुवचनान्त'
बाधाहाणा सकता है और मध्यवर्ती मण्ड़ों का प्रकता विभिन्न किया जाया तब एक वचनान्त भरमा बामकता है इसी प्रकार देश की विवक्षा से चरमान्त प्रदेश
मेरबारमात प्रदेश से भी कहे जा सकते हैं। इसका विस्तृत कथन प्रज्ञापना सूत्र के दसवें 'चरमपद' में है,
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॥ इति आठवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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