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भगवती सूत्र - श. ७ उ ८ छद्मस्थ सिद्ध नहीं होता
तात्पर्य यह है कि असंज्ञी जीव 'इच्छा और ज्ञान शक्ति के अभाव में अनिच्छा और अज्ञान पूर्वक सुखदुःख वेदते हैं ।' संज्ञी जीव, इच्छा और जान शक्ति युक्त होते हुए भी उपयोग के अभाव में अनिच्छा और अज्ञानपूर्वक वेदना वेदते हैं । एवं सामर्थ्य और इच्छायुक्त होते हुए भी प्राप्तिरूप सामर्थ्य के अभाव में मात्र तीव्र अभिलाषांपूर्वक वेदना वेदते हैं।
॥ इति सातवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक ७ उद्देशक द
१९८२
छद्मस्थ सिद्ध नहीं होता
१ प्रश्न - छउमत्थे णं भंते । मणूसे तीयमणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं० ?
१ उत्तर - एवं जहा पढमसए चउत्थे उद्देसर तहा भाणियव्त्रं, जाव अलमत्थु ।
२ प्रश्न - से पूर्ण भंते ! हत्थिस्स य समे चैव जीवे ?
२ उत्तर - हंता, गोयमा ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य एवं जहा 'रायप्प सेणइज्जे' जाव खुड्डियं वा, महालियं वा, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाब समे चैव जीवे ।
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कठिन शब्दार्थ - तीयमणंतं - अतीत अनन्त, सासयं - शाश्वत, अलमत्यु - पूर्ण, खुड्डियं - क्षुद्र (छोटा), महालियं - महान् ( बड़ा ) ।
भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य अनन्त और शाश्वत
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