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भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम
वचन और काया । इनमें मन के चार, वचन के चार और काया के सात, इस प्रकार कुल पन्द्रह भेद हो जाते हैं । मन के चार भेद ये हैं- ( १ ) सत्यमनोयोग - मन का जो व्यापार सत् अर्थात् सज्जन पुरुष या साधुओं के लिये हितकारी हो, उन्हें मोक्ष की तरफ ले जाने वाला हो, उसे 'सत्यमनोयोग' कहते हैं, अथवा सत्यपदार्थों के अर्थात् जीवादि पदार्थों के अनेकान्त रूप यथार्थ विचार को 'सत्यमनोयोग' कहते हैं ।
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(२) असत्य मनोयोग - सत्य से विपरीत अर्थात् संसार की तरफ ले जाने वाले मन के व्यापार को -- 'असत्यमनोयोग' कहते हैं, अथवा 'जीवादि पदार्थ नहीं हैं, इत्यादि मिथ्या विचार को 'असत्य मनोयोग' कहते हैं ।
(३) सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग - व्यवहार नय से ठीक होने पर भी जो विचार निश्चय नय से पूर्ण सत्य न हो, जैसे- किसी उपवन में धव, खैर, पलाश आदि के कुछ पेड़ होने पर भी अशोक वृक्ष अधिक होने से उसे 'अशोकवन' कहना । वन में अशोक वृक्षों के होने से यह बात सत्य है और धव आदि के वृक्ष होने से यह बात मृषा (असत्य) भी है ।
(४) असत्यामृषा मनोयोग -- जो विचार सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है, उसे 'असत्यामृषा (व्यवहार) मनोयोग' कहते हैं । किसी प्रकार का विवाद खड़ा होने पर वीतराग सर्वज्ञ के बताये हुए सिद्धान्त के अनुसार विचार करने वाला 'आराधक' कहा जाता है । उसका विचार सत्य है । जो व्यक्ति सर्वज्ञ के सिद्धान्त से विपरीत विचारता है, जीवादि पदार्थों को एकान्त नित्य आदि बताता है, वह 'विराधक' है। उसका विचार अमत्य है । जहाँ वस्तु को सत्य या असत्य किसी प्रकार सिद्ध करने की इच्छा नहीं हो, केवल वस्तु का स्वरूप मात्र दिखाया जाय। जैसे— देवदत्त ! घड़ा लाओ । इत्यादि चिन्तन में वहाँ सत्य या असत्य कुछ नहीं होता, आराधक, विराधक की कल्पना भी वहीं नहीं होती । इस प्रकार के विचार को 'असत्यामृषा मनोयोग' कहते हैं । यह भी व्यवहार नय की अपेक्षा से है । निश्चय नय से तो इसका सत्य या असत्य में समावेश हो जाता है ।
वचन योग के भी मनोयोग की तरह चार भेद हैं । यथा - ( १ ) सत्य वचन योग, ( २ ) असत्य वचन योग, (३) सत्य - मृषा वचन योग और ( ४ ) असत्यामृषा वचन योग। इनका स्वरूप मनोयोग के समान ही समझना चाहिये । मनोयोग में केवल विचार मात्र का ग्रहण है और वचन योग में वाणी का ग्रहण है, अर्थात् मनोगत भावों को वचन द्वारा प्रकट करना । औदारिक आदि काय-योग द्वारा मनोवगंणा के द्रव्यों को ग्रहण करके उन्हें मनोयोग द्वारा मनपने परिणमाए हुए पुद्गल ' मनःप्रयोगपरिणत' कहलाते हैं । औदारिक आदि
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