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भगवती सूत्र - ७ उ १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या
पण्णवे । से कहमेयं मण्णे एवं ?
कठिन शब्दार्थ -- एगयाओ समुवागयाणं - एक स्थान पर आये, सण्णिविद्वाणं-बैठे, सणसण्णाणं - मुख पूर्वक बैठे, मिहोकहासमुल्लावे- ऐसी बातचीत हुई, समणे नायपुत्ते - -श्रमण ज्ञात पुत्र - भ. महावीर, अस्थिकाए - अस्तिकाय ।
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भावार्थ - १ उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था, वर्णक । गुणशील नामक चंत्य ( बगीचा ) था, वर्णक । यावत् उसमें पृथ्वी- शिलापट था । उस गुण-शील चैत्य के पाप थोडी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थी रहते थे । यथा- कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक,
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पालक और सुहस्ती गृहपति । किसी समय वे सब एक जगह आये और सुखपूर्वक बेठे । उन अन्यतीथिकों में इस प्रकार का वार्तालाप हुआ'श्रमण- ज्ञातपुत्र ( महावीर ) पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं, यथाधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलारितकाय । इन में से श्रवण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकाय को 'अजीब काय' कहते हैं । यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । एक जीवास्तिकाय को श्रमण- ज्ञातपुत्र 'अरूपी जीवकाय' बतलाते हैं । उन पांच अस्तिकायों में श्रमण - ज्ञातपुत्र, चार अस्तिकायों को 'अरूपी' बताते हैं । यथाधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय । एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण-ज्ञातपुत्र रूपीकाय और 'अजीवकाय' कहते हैं । उनकी यह बात किस प्रकार मानी जा सकती है ?"
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ते काणं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए चेइए समोसढे | जाव परिसा पडिगया ।
तेणं कालेणं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीररस
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