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भगवती सूत्र - ८ उ. ९ प्रयोग बंध
योगी अवस्था तक सादि सपर्यवसित बंध है और सिद्ध जीवों के प्रदेशों का सादि - अपर्यवसित बंध है । सादि सपर्यवसित बंध के चार भेद हैं । यथा-१ आलापन बंध, २ आलीन बंध, ३ शरीर बंध और ४ शरीर प्रयोग बंध । रस्सी आदि से तृणादि को बांधना - 'आलापन बंध' है । लाख आदि के द्वारा एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ बंध होना 'आलीनबंध' हैं । समुद्घात करते समय विस्तारित और संकोचित जीव प्रदेशों के सम्बन्ध से तेजसादि शरीर प्रदेशों का संबंध होना - 'शरीर बंध' है अथवा समुद्घात करते समय संकुचित हुए आत्मप्रदेशों का सम्बन्ध 'शरीर बंध' है । औदारिकादि शरीर की प्रवृत्ति से शरीर के पुद्गलों को ग्रहण करने रूप बंध 'शरीर प्रयोग बंध' कहलाता है ।
आलीन बंध के चार भेद कहे गये हैं । यथा - १ श्लेषणा बंध, २ उच्चय बंध, ३ समुच्चय बंध और ४ संहननं बंध। इनका स्वरूप मूल में बतला दिया गया है और मूल पाठ में आये हुए 'गिल्लि, थिल्लि' आदि शब्दों का अर्थ पहले बतला दिया गया है ।
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संबंध के दो भेद कहे गये हैं । यथा- देश - संहनन बंध और सर्व संहनन बंध | विभिन्न पदार्थों के मिलने से एक आकार का बन जाना - 'संहनन बंध' है। किसी वस्तु के एक अंश द्वारा किसी अन्य वस्तु का अंशरूप से सम्बन्ध होना 'देश - संहनन बंध' कहलाता है । जैसे पहिया, जुआ आदि विभिन्न अवयव मिलकर गाड़ी का रूप धारण कर लेते हैं । दूध और पानी की तरह तादात्म्यरूप हो जाना -' - 'सर्व संहनन बंध' कहलाता है ।
शरीर बंध
१९ प्रश्न - से किं तं सरीरबंधे ?
१९ उत्तर - सरीरबंधेदुविहे पण्णत्ते, तं जहा - पुव्वपओगपच्चइए
य पडुप्पण्णपओगपचहए य ।
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२० प्रश्न - से किं तं पुव्वपओगपच्चहए ?
२० उत्तर - पुव्वपओगपच्चइए जं णं णेरइयाणं संसारत्थाणं सव्व
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