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भगवती सूत्र-श. 3 उ. १० अचित्त पुद्गलों का प्रकाश
विवेचन-दो पुरुष अग्निकाय का आरम्भ करते हैं, उनमें से एक पुरुष जलाने का आरम्भ करता है और दूसरा 'बुझाने' का आरम्भ करता है। अग्नि जलाने से बहुत से अग्निकायिक जीवों की उत्पत्ति होती है, परन्तु उनमें से कुछ जीवों का विनाश भी होता है, अग्नि को जलाने वाला पुरुष, अग्नि काय के अतिरिक्त अन्य सभी कार्यो का महासभ करता है । इसलिए जलाने वाला पुरुष, ज्ञानावरणीय आदि महाकर्म उपार्जन करता है दाहरूप महाक्रिया करता है, कर्मबन्ध का हेतुभूत महा आश्रय करता है और जीवों को महावेदना उत्पन्न करता है । बुझाने वाला पुरुष, अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य सब कार्यो का अल्प आरम्भ करता है । इसलिये वह जलाने वाले पुरुष की अपेक्षा अल्प कर्म वाला, अल्प क्रिया वाला, अल्प आश्रव वाला और अल्प वेदना वाला होता है ।
अचित्त पुद्गलों का प्रकाश
१० प्रश्न-अस्थि णं भंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उजाति, तति, पभासेंति ?
१० उत्तर-हंता, अस्थि ।
११ प्रश्न-कयरे णं भंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, जाव पभाति ?
११ उतर-कालोदाई ! कुद्वस्स अणगारस्स तेयलेस्सा णिमट्ठा ममाणी दूरं गया, दूरं णिपतह, देसं गया देसं णिपतइ, जहिं जहिं च णं मा णिातह, तहिं तहिं णं ते अचिता वि पोग्गला ओभासंति, जाव पभामेंति, एएणं कालोदाई ! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभामंति जाव पभासंति । तए णं से कालोदाई अण
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