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भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम
४३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य औदारिक-मिश्र शरीर काय प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या एकेंद्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत होता है, बे इंद्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, या यावत् पंचेन्द्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत होता है ।
४३ उत्तर - हे गौतम ! वह एकेन्द्रिय औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोग परिणत होता है, अथवा बेइंद्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय औदारिक-मिश्र शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है। जिस प्रकार औदारिक- शरीर काय प्रयोग-परिणत के आलापक कहे हैं, उसी प्रकार औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत के भी आलापक कहना चाहिये । किंतु इतनी विशेषता है कि औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत का आलापक बादर बायुकायिक, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और गर्भज मनुष्य के पर्याप्त और अपर्याप्त के विषय में कहना चाहिये और इसके सिवाय शेष सभी जीवों के अपर्याप्त के विषय में कहना चाहिये ।
विवेचन काया की प्रवृत्ति को 'काय योग' कहते हैं। इसके सात भेद हैं
(१) औदारिक काय योग — काय का अर्थ है 'समूह' । औदारिक- शरीर, पुद्गलस्कन्धों का समूह है, इसलिये काय है । इमसे होने वाले व्यापार को 'औदारिक- शरीर . काय-योग' कहते हैं । यह योग मनुष्य और तिर्यञ्चों के होता है ।
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(२) औदारिक-मिश्र काय-योग - औदारिक के साथ कार्मण, वंक्रिय या आहारक की सहायता से होने वाले वीर्य शक्ति के व्यापार को 'ओदारिक- मिश्र काय- योग' कहते हैं । यह योग उत्पत्ति के समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक सभी औदारिक शरीरधारी जीवों के होता है । वैक्रिय-लब्धिधारी मनुष्य और तिर्यञ्च जब वैक्रिय शरीर का त्याग करते हैं, तब भी औदारिक- मिश्र होता है । वैक्रिय बनाते समय तो वैक्रिय-मिश्रकाय - योग होता है । इसी प्रकार लब्धिधारी मुनिराज जब आहारक शरीर बनाते है, तब तो आहारक-मिश्र-काय-योग का प्रयोग होता है, किन्तु आहारक शरीर से निवृत्त होते समय अर्थात् वापिस स्वशरीर में प्रवेश करते समय 'औदारिक-मिश्र काय योग' का प्रयोग होता है । केवली भगवान् जब केवली समुद्घात करते हैं, तब केवली समुद्घात के आठ समयों में से दूसरे, छठे और सातवें समय में 'औदारिक-मिश्र काय-योग' का प्रयोग होता हैं ।
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