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भगवती सूत्र-ग. ८ उ. ६ क्रियाएं कितनी लगती हैं ?
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उसे पारितापनिकी क्रिया लगती है और जब उसके प्राणों का घात करता है, तब प्राणातिपातिकी क्रिया लगती है।
कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी इन तीन क्रियाओं का परम्पर अविनाभाव सम्बन्ध है । इसलिये सराग जीव कदाचित् एक क्रिया और दो क्रिया वाला नहीं होता, वह नियम से तीन क्रिया वाला ही होता है। क्योंकि सराग जीव की काया अधिकरणरूप तथा प्रद्वेष युक्त होने से कायिकी क्रिया के सद्भाव में ये दोनों क्रियाएँ अवश्य ही होती है । आधिकरणिकी और प्रादेषिकी-इन दो क्रियाओं के सद्भाव में कायिकी क्रिया अवश्य होती है । इस प्रकार इनका परस्पर अधिनाभाव सम्बन्ध है । यही बात प्रज्ञापनासूत्र में भी कही गई है । यथा
"जस्सणं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स अहिगरणिया किरिया नियमा कज्जा, जस्स अहिगणिया किरिया कज्जइ तस्स वि काइया किरिया नियमा कज्जई"...इत्यादि।
अर्थ-जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उस जीव के आधिकरणिकी क्रिया अवश्य होती है । जिस जीव के आधिकरणिको क्रिया होती है, उस जीव के कायिकी क्रिया अवश्य होती है।
इसी प्रकार जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उसके प्राद्वैषिकी क्रिया अवश्य होती है और जिस जीव के प्राद्वेषिकी क्रिया होती है, उस जोव के कायिकी क्रिया अवश्य होती है। पारितापनि की और प्राणातिपातिकी क्रियाओं के विषय में भजना है । अर्थात् ये कदाचित लगती हैं और कदाचित नहीं भी लगती। जब काय-ध्यापार द्वारा पहले की तीन क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है, किन्तु उन्हें परिताप नहीं उपजाता और उनका विनाश भी नहीं करता, तब तक जीव को तीन क्रियाएँ लगती हैं । जब परिताप उत्पन्न करता है, तब जीव को चार क्रियाएँ लगती हैं। क्योंकि पारितापनिकी क्रिया में पहले की तीन क्रियाओं का अवश्य सद्भाव है । जब जीव के प्राणों का विनाश करता है, तब उसे पांच क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि प्राणातिपातकी की क्रिया में पूर्व की चार क्रियाओं का अवश्य सद्भाव है । इसीलिये मूल में कहा गया हैं कि जीव को कदाचित् तीन क्रियाएं लगती हैं, कदाचित् चार क्रियाएँ लगती हैं और कदाचित् पाँच क्रियाएँ लगती हैं । कदाचित् जीव अक्रिय भी होता है । यह बात अप्रमत्त अवस्था की अपेक्षा कही गई है, क्योंकि अप्रमत्त को इन पांचों क्रियाओं में कोई भी क्रिया नहीं लगती।
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