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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ कितनी क्रिया लगती है ? '
नैरयिक जीव, जब औदारिक शरीरधारी पृथ्वीकायिकादि जीवों का स्पर्श करता है, तब उसे तीन क्रियाएँ लगती हैं । जब परितापना उपजाता है, तब चार क्रियाएँ लगती हैं और जब प्राणों का विनाश करता है, तब पांच क्रियाएँ लगती हैं । नरयिक जीव में अप्रमतता नहीं हो सकती, इसलिये वह अक्रिय नहीं हो सकता। इसी प्रकार मनुष्य को छोड़कर शेष तेईस दण्डक के जीव भी अक्रिय नहीं हो सकते। मनुष्य अक्रिय हो सकता है।
एक जीव को एक शरीर की अपेक्षा, एक जीव को बहुत जीवों के शरीरों की अपेक्षा, बहुत जीवों को एक शरीर की अपेक्षा और बहुत जीवों को बहुत जीवों के शरीरों की अपेक्षा. ये चार दण्डक (आलापक) औदारिक शरीर को अपेक्षा होते हैं । इसी प्रकार शेष चार शरीरों के भी प्रत्येक के चार चार दण्डक (आलापक) कहना चाहिये । औदारिक शरीर को छोड़कर शेष चार शरीरों का विनाश नहीं हो सकता । इसलिये वैक्रिय, आहारक, तेजम् और कार्मण, इन चार शरीरों की अपेक्षा जीव कदाचित् तीन क्रिया वाला और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है, किन्तु पांच क्रिया वाला नहीं होता। प्रत्येक के चौथे दण्डक में 'कदाचित्' शब्द नहीं कहना चाहिये।
शंका-नरयिक जीव अधोलोक में रहते हैं। आहारक शरीर मनुष्य लोक में होता है । तब उस नरयिक जीव को आहारक शरीर का अपेक्षा तीन क्रिया या चार क्रिया कैसे लग सकती है ?
समाधान--नरयिक जीव ने अपने पूर्व भव के शरीर को विवेक (विरति) के अभाव से वोसिराया (त्यागा) नहीं । इसलिये उस जीव द्वारा बनाया हुआ वह शरीर, जब तक शरीर परिणाम का सर्वथा त्याग नहीं कर देता, तब तक अंश रूप से भी शरीर परिणाम को प्राप्त वह पूर्व भव प्रज्ञापना की अपेक्षा 'घृत घट' के न्याय से वह शरीर उसी का कहलाता है । जैसे-जिस घड़े में पहले घी रखा था, उसमें से घी निकाल लेने पर भी लोग उसे 'घतघट' (घी का घड़ा) कहते हैं। इसी प्रकार वह शरीर उस जीव द्वारा बनाया हुआ होने से वह शरीर उसी का कहलाता है । उस मनुष्य लोकवर्ती शरीर के अंश रूप अस्थि (हड्डा) आदि से जब आहारक शरीर का स्पर्श होता है अथवा उसे परिताप उत्पन्न होता है, इस कारण नैरयिक जीव को आहारक शरीर की अपेक्षा तीन क्रिया या चार क्रिया लगती है । इसी प्रकार देव आदि के विषय में एवं बेइन्द्रिय आदि जीवों के विषय में भी जान लेना चाहिये। .. तेजस् कार्मण शरीर की अपेक्षा भी जीवों को तीन क्रिया और चार क्रिया का
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