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भगवती सूत्र-श.८ उ. ८ कर्म-प्रकृति और परोपह
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ज्ञानों के नहीं होने से होने वाला खेद ।
२२ दर्शन परीषह-तीर्थकर भगवान् में और तीर्थंकर भाषित सूक्ष्म तत्त्वों में अश्रद्धा (शंका)होना 'दर्शन परीषह' है । शंका आदि का त्याग करना 'दर्शन परीषह' का विजय है । तथा दूसरे मतवालों की ऋद्धि तथा आडम्बर को देखकर भी अपने मत में दृढ़ रहना-दर्शन परीषह का विजय है।
इसके पश्चात् यह बतलाया गया है कि किस परीपह का समवतार किस कर्म में होता है अर्थात् किस कर्म के उदय से कौनसा परीषह होता है, प्रज्ञा परीषह और अज्ञान परीषह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होते हैं अर्थात् प्रज्ञा (बुद्धि) का अभाव मति-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है। इसी प्रकार अज्ञान परीषह अवधि आदि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है।
वेदनीय कर्म के उदय से ग्यारह परीपह होते हैं । यथा-क्षुधा परीषह, पिपासा परीषह, शीत परीषह, उष्ण परीषह, दंशमशक परीषह, चर्या परीषह, शय्या परीषह, वध परीषह, रोग परीषह, तृणस्पर्श परीषह और जल्ल (मैल) परीषह । इन परीषहों के द्वारा पीड़ा (वेदना) उत्पन्न होना-वेदनीय कर्म का उदय है और उसे सम्यक् प्रकार से सहन करना चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षयोपशमादि से होता है।
. सामान्यतः मोहनीय कर्म के उदय से आठ परीषह होते हैं। उनमें से दर्शन-मोहनीय कर्म के उदय से एक दर्शन परीपह होता है। चारित्र-मोहनीय के उदय से सात परीषह होते हैं । यद्यपि ये सातों परीषह चारित्र-मोहनीय कर्म की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के उदय से होते हैं, किन्तु यहां सामान्यतः कथन किया गया है कि ये सब चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं।
अन्तराय कर्म (लाभान्तराय कर्म) के उदय से एक अलाभ परीषह होता है ।
आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करने वाले जीव के बाईस परीपह होते हैं । इसी प्रकार आठ कर्मों को बाँधने वाले जीव के भी बाईस परीषह होते हैं, किन्तु वह जीव एक समय में बीस परीषह वेदता है। शीत और उष्ण-इन दोनों परीषहों में से एक समय में एक वेदता है, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, इसलिये एक ही समय में एक जीव में ये दोनों नहीं हो सकते । चर्या और निसीहिया (निपदया)परीषह-इन दोनों में से एक समय में एक वेदता है। चर्या का अर्थ है-विहार करना और निषद्या का अर्थ है-स्वाध्याय आदि के निमित्त विविक्त (स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित) उपाश्रय में बैठना । इस प्रकार विहार और अवस्थान रूप परस्पर विरोधी हैं।
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