________________
भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बंध
समय में सर्वबंधक होता है। शेष समय में क्षुल्लक-भव प्रमाण अपनी जघन्य आयु पर्यन्त देशबंधक होता है । इसलिये पृथ्वीकायिक जीव के लिये यह कहा गया है कि तीन समय कम क्षुल्लक भव पर्यन्त वह जघन्य देशबंधक होता है । अपनी अपनी काया और जाति में जो छोटे से छोटा भव हो, उसे 'क्षुल्लक भव' कहते हैं । एक मुहूर्त में सूक्ष्म निगोद के ६५५३६ क्षुल्लक भव होते हैं। एक श्वासोच्छ्वास में सत्तरह झाझरा (कुछ अधिक) क्षुल्लक भव होते हैं। ___ पृथ्वीकाय के तो एक मुहूर्त में १२८२ ४ क्षुल्लक भव होते हैं । इत्यादि ।
अप्काय, तेउकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का देशबंध जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भव ग्रहण पर्यन्त है । क्योंकि उनमें वैक्रिय-शरीर नहीं होता। उत्कृष्ट देशबंध अप्काय का सात हजार वर्ष, ते उकाय का तीन अहोरात्र, वनस्पतिकाय का दस हजार वर्ष, बेइन्द्रिय का बारह वर्ष. तेइन्द्रिय का ४९ दिन, चतुरिन्द्रिय का छह महीने की स्थिति है, उसमें एक समय कम शेष देशबंध होता है। इस प्रकार जिसकी जितनी स्थिति है, उसमें एक समय कम शेष देशबंध होता है। वैक्रिय-शरीर वालों में देशबध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अपनी अपनी स्थिति में एक समय कम होता है।
सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भव ग्रहण पर्यन्त है । क्योंकि कोई जीव, तीन समय की विग्रह गति से औदारिक-शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ, तो विग्रहगति के दो समय में अनाहारक रहता है और तीसरे समय में सर्व बन्धक होता है। क्षुल्लक भव तक जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हो गया और औदारिक-शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ, वहाँ पहले समय में सर्वबन्धक होता है । इस प्रकार सर्वबन्धक का सर्वबन्धक के साथ अन्तर, विग्रहगति के तीन समय कम क्षुल्लक भव होता है। उत्कृष्ट समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम होता है, क्योंकि कोई जीव, अविग्रह गति द्वारा मनुष्य आदि गति में उत्पन्न हुआ, वहाँ प्रथम समय में सर्वबन्धक रहता है । फिर पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ, वहाँ से तेतीस सागरोपम की स्थितिवाला नैरयिक हुआ अथवा अनुत्तर विमानवासी देव हुआ। वहां से च्यवकर तीन समय की विग्रहगति द्वारा औदारिकशरीरधारी जीव हुआ । वहां विग्रह गति में दो समय तक अनाहारक रहता है और तीसरे समय में औदारिक-शरीर का सर्वबन्धक रहता है । अब विग्रह गति में दो समय तक जो अनाहारक रहा था, उनमें से एक समय पूर्वकोटि के सर्वबंधक के स्थान में डाल दिया जाय, तो वह पूर्वकोटि पूर्ण हो जाती है और उसके ऊपर एक समय अधिक बचा हुआ रहता है । इस प्रकार सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर एक समयाधिक पूर्व-कोटि और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org