________________
१४१६ -
भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद
भावार्थ-१-उस काल उस समय में राजगृह नामका नगर था। (वर्णन करना चाहिये ।) वहां गुणशीलक नामक उद्यान था (वर्णन)। यावत् पृथ्वी. शिलापट्टक था । उस गुणशीलक बगीचे के आसपास-न बहुत दूर, न बहुत निकट, बहुत से अन्यतीर्थिक रहते थे। उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, धर्मतीर्थ की स्थापना करनेवाले यावत् वहां समवसरे (पधारे) यावत् धर्मोपदेश सुनकर परिषद् वापिस चली गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के बहुत-से शिष्य स्थविर भगवन्त जाति-संपन्न कुलसम्पन्न इत्यादि दूसरे शतक में वर्णित गुणों से युक्त यावत् जीवन को आशा और मरण के भय से रहित थे । वे श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास न अति दूर न बहुत निकट, ऊर्ध्व-जानु (घुटने खडे रखकर) अधो-सिर (मस्तक को कुछ झुकाकर) ध्यान-कोष्ठोपगत होकर संयम और तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे।
२-तएणं ते अण्णउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अजो! तिविहं तिविहेणं असंजय-विरय-प्पडिहय० जहा सत्तमसए बिइए उद्देसए जाव एगंतबाला या वि भवह । - ३-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय विरय० जाव एगंतवाला यावि भवामो ? ।
. ४-तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अजो ! अदिण्णं गेण्हह, अदिण्णं भुंजह, अदिणं साइजह;
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org