________________
६
अध्याहार करने के लिए, "प्रथ" शब्द की आधिकारिक व्याख्या करनी चाहिए | " वेदाध्ययन के बाद" ऐसा अधिकृत अर्थ ही अथ में निहित है । विना अध्ययन किये वैदिक विषय पर विचार नहीं हो सकता । अध्ययन हीन स्वतन्त्रता ही दोष है । वेदार्थ "ब्रह्म" में ही विहित है, ऐसा मानना ही वेदानुकूल विचार है, इस विचार के लिए किया गया व्याख्यान ही युक्त है । व्याख्यान से विशेष अर्थावबोध होता है । जैसे कि पूर्व मीमांसा में - "दर्श - पूर्णमासी तु पूर्वं व्याख्यास्यामः " का तात्पर्य है "अथातो दर्शपूर्णमासो व्याख्यास्यामः 1
""
अथवा एतर्हि इमानि सिद्ध्यन्ति प्रयोजनानि, अधिकाकांक्षा न भवेत्, अध्याहारश्च पुरुषार्थश्च सिध्येत्, उच्छेदश्च न भवेदिति कथम् ? अथ शब्दोऽर्थं चतुष्टये वर्त्तते - मंगले, अधिकारे, अनंत अर्थान्तरोपक्रमे च । तत्र श्रुतिमात्रेणैव मंगल सिद्धेरर्थान्तरस्य पूर्वोक्तस्याभावान्नात्र तत्कल्पनम् । अथावशिष्यते श्रानन्तर्ये वाऽधिकारे वेति । आनन्तर्ये तु अध्ययनस्य स्वतः सिद्धत्वादधिकाकांक्षा भवति । तथा तदभावान्न विचारः सिद्ध्येत् । तथाहि न तावद्ध में विचारानन्तर्यम्, विपर्यय संभवात् । न च पाठतो नियमः, तत्रापि तथा । न चाऽचारांद् व्यवस्था, तत्राप्यनियम संभवात् प्रत्यवायाश्रवरणात्, संभवेऽपि न वक्तव्यत्वमध्ययनवत्, तथा च ततोऽप्याकांक्षा भवेत् ।
अधिकार अर्थ की सिद्धि के बाद, अधिक आकांक्षा का अभाव, पुरुषार्थ सिद्धि, शास्त्रोच्छेद का अभाव और अध्याहार का अभाव, ये चार प्रयोजन सिद्ध होते हैं, क्योंकि "अथ" शब्द मंगल, अधिकार, आनन्तर्य और
तरोपक्रम इन चार ग्रंथों में प्रयोग होता है। श्रुति के सारे ही शब्द मांगलिक हैं, इसलिए "अर्थ" शब्द मंगलार्थक तो ही नहीं सकता । पूर्व में कुछ कहा तो गया नहीं. इसलिए अर्थान्तर बोधक भी नहीं हो सकता । बच रहे श्रानन्तर्य और अधिकार, इन्हीं दोनों में से किसी अर्थ में वह प्रयुक्त है । आनन्तर्य अर्थ तो स्वतः सिद्ध है, अध्ययन के बाद अधिक आकांक्षा होती है, यही आनन्तर्य अर्थ का तात्पर्य है । अध्ययन के विना विचार सिद्धि नहीं हो "सकती । धर्म विचार के बाद ब्रह्म जिज्ञासा की जाय, ऐसा कोई आवश्यक नहीं है, ऐसा मानने से तो विपर्यय होगा । न यही नियम है कि वेदों से धर्म को पढ़ो बाद में ब्रह्म तत्त्व पर विचार करो, यदि ऐसा कोई नियम हो भी तो उसे शिष्टों द्वारा प्राचरित होते नहीं देखा जाता । उस पर भी यदि