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"द्वयच्छंदसि" इत्यादि भिन्न नियम क्यों करते ? (अर्थात् वेद में यदि दो अचू के अतिरिक्त भी मयट का विकारार्थ में प्रयोग होता है तो विज्ञानमय प्रानन्दमय इत्यादि अनेक अचों वाले शब्दों में प्रयुक्त मयट में भी विकारार्थ ही मान लिया जाता, पर पाणिनि ने प्राचुर्यार्थ की सिद्धि के लिए ही स्पष्टतः दो सूत्रों का विधान किया ।)
इस प्रसंग में, सर्वविप्लववादी (हर जगह झगड़ा करने वाले) मयट को विकारार्थक ही कहते हैं। सम्भवतः उन्हें श्रुति के व्याकरणीय नियमों का ज्ञान नहीं है, हो भी कैसे वे तो नवें अवतार (भगवान बुद्ध) के कार्य में संलग्न हैं । इसलिए वैदिकों के लिए उनका मत उपेक्ष्य है [पद्मोत्तर खंड के उमा महेश्वर संवाद में शंकर जी ने तामस शास्त्र कथन की प्रतिज्ञा की थी- "मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्न बौद्धमुच्यते, मयैव छथितं देवि कली ब्राह्मणरूपिणा” आचार्य शंकर साक्षात् शंकर हैं उनका ये कार्य लीला मात्र है, शास्त्र दृष्टि से उपेक्ष्य है] आनन्दमय आदि का जो वास्तविक अर्थ था, उसे हमने व्याकरणीय नियमों के अनुसार प्रस्तुत कर दिया।
शब्द बल विचारेण मयटो विकारार्थत्वं निवारित, अर्थबल विचारेणापि निराकरोति ।
शब्द बल के आधार पर तो मयट के विकारार्थ का निराकरण कर दिया । अब अर्थबल के आधार पर निराकरण करते हैं
वद्हेतुक्यपदेशाच्च ।१।१।१३॥ . . "" हेतुत्वेन व्यपदेशो हेतुव्यपदेशः। तस्य हेतुव्यपदेशः तद् हेतु व्यपदेशः तस्मात् । “एस ह्यवानंदयाति" आनन्दयतीत्यर्थः सर्वस्यापि विकारभूतस्यानंदस्यायमेवानंदमयः कारणम् । यथाविकृतस्य जगतः कारणं ब्रह्म अविकृतं सच्चिद्रूपमेक्मेवानन्दमयोऽपि, कारणत्वादविकृतोऽन्यथा तद्वाक्यं व्यर्थमेव स्यात्, तस्मानानन्दमयो विकारार्थः चकारः समुच्चयं वदन् सूत्रद्वयेनकोऽर्थों मध्ये प्रतिपादित इत्याह ।
..: हेतु रूप से जिसका व्यपदेश किया जाय उसे हेतुव्यपदेश कहते हैं, उसके हेतुव्यपदेश को तद् हेतु व्यपदेश कहते हैं । “यही (आनन्दमय ही) प्रादित