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तदितरास्फूर्त्या तमेव सर्वत्र पश्यति । एतदेवोक्तमेवं पश्यन्नित्यनेन । ततः किंचिद् बाह्यानुसंधानेऽहंकारादेशो भवति । स त्वहमेव सर्वतः स्वकृतिसाम
तं प्रकटी करिष्य इति मनुते । करोति च तथा । अतएवान्वेषण गुणगाने कृते ताभिः । एतदेवोक्तमेनं मन्वान इत्यनेन । ततोनिरुपधिस्नेह विषयः पुरुषोत्तम आत्मशब्देनोच्यते इति तदादेशो भवति । तदा पूर्वकृत स्वसाधन वैकल्य ज्ञानेनातिदैन्ययुक्त सहज स्नेहज विविध भाववान् भवति तदेतदुक्तमेवं विजानन्नित्यनेन, अतएवोपसगं उक्तः । ततोऽति दैन्याविर्भावे सति या अवस्थास्ता निरूपिता आत्मरतिरित्यादिना अत्रात्मगब्दाः पुरुषोत्तम वाचका ज्ञेयाः । अन्यथोप चारिकत्वं स्यात मुख्ये संभवति तस्यायुक्तत्वात् ।
आदिपद से जो त्रिविधभाव कहे गए, उनके स्वरूप भी " इस प्रकार देखकर, इस प्रकार मानकर, इस प्रकार जानकर, " इस क्रम से बतलाए गए हैं, वे ही है । पहिले अति विगाढभाव से वह रहता है, उस स्थिति में इतर भाव का स्फुरण नहीं रहता, वही सर्वत्र दीखता है । " एवं पश्यन् " से उसी भाव का उल्लेख है । उस स्थिति के बाद कुछ ब्रह्मानुभूति होने से अहंकार भाव होता है, उस समय अनुभूति होती है कि वह मैं ही हूँ, सब ओर अपने कृति सामर्थ्य से उसे प्रकट करता हूँ, यह भावगोपियों ने कृष्णान्वेषण के समय किये हुए गुणगान में प्रकट किया था, "एनं मन्वानं" में इसी प्रकार का उल्लेख है । उसके - बाद सहज स्नेह के भाजन पुरुषोत्तम का आत्म शब्द से उल्लेख है, उस आत्मा जब अनुभूति होती है तब, पूर्वकृत अपने किए गए सभी साधनों की विफलता का ज्ञान होता है जिसके फलस्वरूप दीनता समन्वित सहज स्नेह से अनेक भाव उत्पन होते हैं । " एवं विजानन" से उसी का उल्लेख किया है, अतिदैन्य के आविर्भाव होने पर जो अवस्था " आत्मरति" इत्यादि पदों से दिखलाई
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गई है, वहाँ आत्म शब्द पुरुषोत्तम वाचक ही जानने चाहिए। यदि उक्त प्रासंगिक आत्म शब्दों को पुरुषोतम वाची नहीं मानेंगे तो वे औपचारिक सिद्ध होंगे, यदि उन्हें मुख्य जीववाची मानेंगे तो वे सारे वाक्य ही असंगत हो जावेंगे ।
ननु सर्वात्मभावस्यापि मुक्तो वर्यवसानमुतनेति ? संशय निरासाय दृष्टान्तमाह---प्रज्ञान्तरपृथक्त्ववदिति । मुमुक्षुभक्तस्य स्वेष्टदातृत्वेन भगवद् विषयिणी या प्रज्ञा स सर्वात्मभाववद् भक्तप्रज्ञातः प्रज्ञान्तरम् इत्युच्यते । तच्च कर्मज्ञानं तदितरभक्त प्रज्ञाभ्यः पार्थक्येन तदिष्टमेव साध्यति । तथा सर्वात्मभा