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( ४९२ ) है" इत्यादिस्मृति भी उक्त बात की हो पुष्टि करती है। त्याग विधि तो अशक्त विषयक है । प्रतिवदति-उक्तमत का प्रतिवाद करते हैं
अधिकोपदेशात्त बादरायणस्यैवं तदर्शनात् ।३।४।८॥ ..
तु शब्दः पूर्वपक्षं व्यवाच्छिनत्ति । यदुक्तं शेषत्वात् पुरुषार्थवाद इति तन्नोपपद्यते । कुतः अधिकोपदेशात्, कर्मसाम्यमपि न वक्तु शक्यम् यत्र तत्र तच्छेषत्वं दुरापास्तम् । यत ईश्वर कर्मणः सकाशादाधिक उपदिश्यते, तथाहि
"स वा अयमात्मा सर्वस्यवशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः सर्वमिदं प्रशास्ति . यदिदं किंच, स न साधुनाकर्मणाभ्यानो एवासाधुनाकनीयान्" इत्युपक्रम्य अग्रे पठ्यते--"तमेतं वेदानुवचनेन विविदिषन्ति ब्रह्मचर्यणतपसा श्रद्धया यज्ञेनानाशकेन चैतमेव विदित्वा मुनिर्भवति एतमेव प्रबाजिनो लोकमभीप्सन्तः प्रब्रजन्ति" इत्यादि । एवं सति यज्ज्ञानसाधनत्वं यज्ञे तस्य यज्ञशेषत्त्वं कथं स्यात् । किन्तु यज्ञस्य यद्वेदनशेषत्त्वं एतेनेज्यत्वेन तच्छेषत्वं प्रत्युक्तं वेदितव्यम् । तज्ज्ञानस्य यागपूर्वा गत्वात् तदृविशिष्टस्य तस्य ब्रह्मज्ञान साधनत्वात् ।।
तु शब्द पूर्वपक्ष का निरास करता है । जो यह कहा कि-शेषत्व की दृष्टि से पुरुषार्थवाद है, सो नहीं हो सकता क्यों कि उसका विशेष रूप से वर्णन किया गया है। कम की समता भी नहीं बतला सकते, जहाँ तहाँ उसको शेषता को दूर कर दिया गया है । ईश्वर को कम से अधिक बतलाया गया है-“वह परमात्मा सबका वशी सबका स्वामी, सबका अधिपति है इसोसे सब कुछ शासित होता है, ये जो कुछ भी है वह न तो साधुकम से हुआ है, न असाघु. से घटता है "इसे वेदों के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं', ब्रह्मचर्य तप श्रद्धा यज्ञ से इस शाश्वत को जानते है, इसे जानकर व्यक्ति मुनि हो जाता है इसे प्राप्त करने के लिये ही लोक संन्यास लेता है" इत्यादि । इस प्रकार जो ज्ञान साधक है वह यज्ञ में यज्ञ शेष कैसे हो सकता है। किन्तु यज्ञ की जो ज्ञान शेषता है वही यज्ञ रूप से उसकी शेषता है, यही जानना चाहिये वो ज्ञान यज्ञ का पूर्वाग होता है, उस ज्ञान से विशिष्ट वह यज्ञ ब्रह्म ज्ञान का साधन होता है।
न च पूर्व सामान्यत इज्यज्ञानमासीत् यज्ञेन विशेषती ज्ञाने सति पुनर्यज्ञ-- करणे पूर्णकम फलं भवतीति न तदशेषत्वमितिवाच्यम् । “तमेवं विदित्वा मुनिर्भयत्येतमेव प्रब्राजिनो लोकममीप्सन्तः प्रबन्ति" इनि श्रु तेस्तदवेदनस्य गार्हस्थ्य विरोधित्वेन तदसंभवात् । यश्च साध्वसाधु कर्म फल सम्बन्धरहित