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देश पदेन पौनरुक्त्यापत्तेः । तन्मतमनिरस्य तस्मात् स्वमत आधिक्यमात्रोक्त्या निष्कामकर्मणः चित्तशुद्धि हेतुत्वेन परम्परा ज्ञानमार्गोपयोगांगोकारोऽत्र सूच्यते । पुष्टि भक्तिमार्गे तु सोऽपि न " यन्न योंगेन" इति वाक्यात् । एवं सति क्व कर्मशेषत्वगंधोऽपि ब्रह्मणि इति भावः ।
तथा मुक्ति के अनिच्छुक भक्त, यज्ञ आदि साधनों से मुक्त हो जाने पर स्वर्ग में रहते हुए भी, परमात्मा की भक्ति से, अन्तगुहा में ही लीन रहते हैं " परं नापरम् अस्ति" इत्यादि श्रुति बतलाती है कि- पुरुषोत्तम स्वरूप की धारणा करने वाले उसके बिना विरह भाव से एक क्षण भी नहीं रह सकते, उसे प्राप्त करने के प्रयासपूर्वक हृदयान्तगुहा में प्रवेश करते हैं । इसे ही भक्तिमार्गीय जीव का फल कहा गया है । इसके बाद "वेदांतविज्ञाने" इत्यादि ऋचा ज्ञानमार्गीय जीव के फल का उल्लेख करती हैं। यदि ऐसा नहीं है तो फिर वह पुनरुक्ति मात्र है । इस प्रकार कर्म और ज्ञान से अधिक भक्तिमार्ग है, उसमें पुरुषोत्तम प्राप्य हैं, यही श्रुति का उपदेश है । एक प्रमाणवादी व्यास का मत भी, जैमिनि के मत से श्रेष्ठ है । सूत्रकार व्यास, श्रुति से परमत का निराकरण करके, अपने शिष्य जैमिनि के विश्वास के लिए, अपने अनुभव को.. भी "तद् दर्शनाव" पद से प्रमाणित करते हैं । अर्थात् उक्त अधिकता से ही भगवान के भक्तिमार्ग, के महत्व को, अपने अनुभव से श्रेष्ठ बतलाते हैं । श्रुतियाँ आत्मानंद को अधिक बतलाती हैं, इसलिए व्याख्यान नहीं किया यदि वैसा करें तो पुनरुक्ति मात्र ही होगी । उनके मत को निराकरण न करके अपने मत को अधिक बतलाकर, निष्काम कर्म से चित्त शुद्धि होती है इस भाव से, परंपरित कर्म को ज्ञानमार्गीपयोगी मानते हैं यही भाव इस सूत्र से प्रदर्शित करते हैं । पुष्टि भक्ति मार्ग में तो उसको भी अपेक्षा नहीं है, योगेन" इत्यादि वाक्य पुष्टिमार्ग का ही वाचक है । इस भाव में, ब्रह्म में, कर्म शेषत्व की गंध भी संभव नहीं है ।
"यत्र
तुल्यं दर्शनम् ||३|४|९||
यदुक्तमाचारदर्शनात् कर्म शेषत्वं ब्रह्मण इति, तदपि न साधीयः, तुल्यं यतोदर्शनम् । ब्रह्मविदां शुकतृतीयजन्मवदार्ष भादीनां त्याम दर्शनात् । एतेन तदूं विदां कर्म त्यागस्तस्य कर्मशेषत्वं कथं शंकितुमपि शक्यमिति भावः सूच्यते । एतेन कर्मण्यशक्तान् प्रति त्यागविधिरिति निरस्तम् शुकादीनामतथात्वात् ।