________________
(५६१ )
से अतीत स्थान है, वहाँ उक्त प्रकार की लीला का अभाव है । यह गोकुल, भूमि में ही प्रकाशित हो रहा है। इस भूमि में सर्वत्र भक्तों को कामनाओं की पूर्ति होती है— इस तात्पर्य से दो विशेषण दिए गए हैं। यमुना पुलिन, उपवन, निकुंज, गोवर्द्धन की कन्दरा शिखर आदि अनेक रमणीकस्थान भक्तों को आह्लादित करते हैं । इस प्रकार के परमपद इस गोकुल में सुशोभित होते हैं, उनसे संबद्ध वस्तुएँ कामनाओं की पूर्ति करती हैं। पुरुषोत्तम का यही प्राकट्य स्थान है अतः यहाँ की समस्त वस्तुएँ उनसे संबद्ध हैं, हि शब्द से सूत्रकार यही बतलाते हैं ।
४. अधिकरण : -
अविभागोवचनात् |४| २|१६||
ननु लीलया नित्यत्वेन तन्मध्यपातिनां तद्दर्शनं यथा नित्यं तथा तादृक्साधनाभावोऽपि निजानुकम्पया कदाचित् कमपि भक्तं तत्र नयति चेत्तदा कंचित्का संस्थापयित्वा ततस्तं वियोजयति न वेति संशयः । तोषस्य कादाचि - त्कत्वात् तत्साध्या तत्र स्थितिरपितथैवेति वियोजयतीति पूर्वः पक्षः । तत्र सिद्धान्तमाह तत्र प्रवेशितस्य तस्मादविभाग एव कुतः वचनात् । तैत्तरीयके उक्तर्मनन्तरमेव, “विष्णोः कर्माणि पश्यते" इत्यृचातत्रकृतानि कर्माण्यु तदग्रे वदति - " तद्विष्णोः परमं पदं सदापश्यन्तिसूरर्यः इति । पुरुषोत्तमस्वरूप - वत्वं सूरित्त्वं तच्च भक्त्यैवेति, सूरयो भक्ता एव तेषा सदा दर्शनमुच्यते । अन्यथा लीला नित्यत्वेन वै पूर्वग्भ्यां तत्र स्थितगवादीनां प्रभु कर्म विषयाणां च भक्तानां सदा तद् दर्शनस्य प्राप्तत्वादिद ं न वदेत् तस्मादविभाग एव एतेनापि लीला नित्यत्वं सिद्धयति, एतद्यथा तथा बिद्वन्मण्डने प्रपंचितम् ।
संशय करते हैं कि - प्रभु की लीला तो नित्य है तथा उस लीला में उनके दर्शन भी नित्य है, क्या उस प्रकार के साधनों के अभाव में भी कभी किसी भक्त को भगवान अपनी अनुकम्पा से उस लीला में ले जाते हैं और कुछ समय तक वहाँ रोक कर उसे भी उस लीला में लगाते हैं या नहीं ? इस पर पूर्व पक्ष तो ये है कि - कृपा तो कभी कभी ही होती है अतः कभी कभी भगवान उस लीला में लगाते हैं । इस पर सिद्धान्त रूप से सूत्र प्रस्तुत करते हुये कहते हैं कि- लीला में प्रविष्ट भक्त उसका अभिन्न अंग हो जाता है, लीला नित्य है वैसे ही भक्त भी नित्य उस लीला का दर्शन करता है । तैत्तरीयक में "रसो.