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का प्रवेश माना जाना चाहिए। इस पर बिचार करते हैं कि जैसे - " तेन ऊर्ध्व आक्रमते स आदित्यमागच्छति' में विशेषोपदेश है वैसे ही "स वरुणलोकम्" में भी होना चाहिए । सो तो है नहीं "स आदित्य मागच्छति " में तत् शब्द के पूर्व परामर्श से वायुलोक की पूर्वता होने से विशेषोपदेश का औचित्य है । "अग्निलोक जाता है, वही वायुलोक जाता है, वही वरुण लोक जाता है" इत्यादि में भी वैसा ही विशेषोपदेश है ।
किञ्चैवमग्निलोकानन्तरं वायुलोक इत्यापि वक्तुं शक्यमतो विद्वद्भिरुपेक्ष्योऽयम् । वाजसनेयिस्तु - " मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादातित्यम्" इति पठन्ति । तत्राप्यादित्यात् पूर्वौ देवलोकात् परो वायुर्ज्ञेयः । एकत्र आदित्यात् पूर्वत्वे सिद्धे मार्गे क्यादन्यत्रापि तथात्वस्य न्यायप्राप्तत्वात् सूत्रकारेणतु छंदोगश्रुत्यपेक्षयोक्त वायुमन्दादिति । एवं सति मासेभ्यः परस्तादब्दनिवेशनं कार्यम् । न च वायुमब्दादिति सूत्रान्मार्गभेदापत्तिः देवलोकस्यादित्याधिष्ठेयत्वेनादित्वमध्यपातित्वमभिप्रेत्य छंदोगश्रुतिस्तथोक्तवती । तदनुसारेण व्यासोऽप्यतो नानुपत्तिः ।
efforts के बाद वायुलोक भी कह सकते हैं; इसके संबंध में किया गया संशय विद्वानों की दृष्टि में कोई महत्व नहीं रखता । वाजसनेयि में तो - " मास से देवलोक, देवलोक से आदित्य को प्राप्तकरता है" ऐसा पाठ है । वहाँ पर भी आदित्य के पूर्व और देवलोक के बाद वायुलोक की स्थिति माननी चाहिए । जब एक जगह आदित्य के पूर्व उसकी स्थिति निश्चित हो चुकी, जब मार्ग एक ही है तो अन्यत्र भी उसकी स्थिति निश्चित है, इसी सिद्धान्त के आधार पर सूत्रकार ने छांदोग्य श्रुति के लिए "वायुमन्दात् " ऐसा निर्णय किया है । इसके अनुसार मास के बाद वरुगलोक का प्रवेश मानना चाहिए "वायुमब्दात्” सूत्र से भिन्नमार्ग की कल्पना नहीं करनी चाहिए। देवलोक का अधिष्ठाता आदित्यी है । इसलिए सभीलोक आदित्य के मध्यपाती हैं इस अभिप्राय से ही छंदो श्रुति ने वैसा वर्णन किया है। उसी दृष्टि से सूत्रकार व्यास भी कहते हैं, इसमें संशय की गु ंजायश नहीं है ।
तडितोऽधिवरुणः संबन्धात् | ४|३|३||
,' आदित्यात् चन्द्रमसं चन्द्रमसो विद्युतम्" इत्यत्रपठित विद्युल्लोकात् परतो वरुणलोको निवेशनीयः। तत्रहेतुः संबंधात् । तडितोऽप्संबंधित्वावरुणस्य तत्पतित्वात् तथा ।