Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 703
________________ ( ६२० ) को सूत्रकार प्रस्तुत करते हुए अपने विषय को उनके समान सिद्ध करते हैं। उन मतों में कार्यब्रह्मलोक और ब्रह्मलोक प्राप्ति ये दो पूर्व और उत्तर पक्ष हैं। बादरि के मत में सविशेष ही उपास्य है अतः विशेषों की अविद्या सिद्ध होती है, इस प्रकार सभी उपासनाओं को प्रतीक तद्रूपता निश्चित होती है । "अप्रतीकालम्बनान्नयति" इस व्यास कथन के अनुसार निर्णय होता है कि-बादरि मत के अनुसार किसी भी उपासक की ब्रह्मप्राप्ति नहीं होती। वस्तुतः तो उपासना में उपास्य स्वरूप का ज्ञान, उपासना अंग है, बादरिमत में उसका अभाव है अतः वह अधूरी है इसलिए अचिरादि प्राप्ति भी सम्भव नहीं है फिर ब्रह्मप्राप्ति की बात तो गहुत दूर है, यह व्यास का निगूढ आशय है। पर प्राप्ति ही श्रुति सिद्धान्त है यही व्यासाभिमत भी है । ये तु प्रतीकेष्वब्रह्म ऋतुत्वं वदन्तः पंचाग्निविद्यायास्तथात्वेऽपि वचनवलात् तद्वतो ब्रह्मप्राप्तिरिति वदन्ति, तत्रेद मुच्यते, वचनंतु वस्तुसतः पदार्थस्य बोधकं न तु कारकमतस्तच्चेद बोधयति तदाऽप्रतीकालम्बनान्नयतीति व्यासोक्त्यविरोधाय तत्राप्यप्रतीकत्वमुरीकार्यम् । अन्यथा पंचाग्निविद्यानिरूपिकां श्रुतिं पश्यन्नवं स न वदेत् । न चौत्सर्गिकं पक्षमाश्रित्य तथोक्तामिति वाच्यम् । तस्य बाधकापनोद्यत्वाद् वचनस्य चोक्तन्यायेनाबाधकत्वात् । यत्रवचनस्य वाधकत्वमुच्यते तत्र बाध बोधकत्वमेव, न तु तथात्यमित्युपेक्षणायास्ते । जो लोग प्रतीक में अब्रह्मक्रतुता बतलाते हैं एवं श्रुति वचन के बल से पंचाग्निविद्या की ब्रह्मऋतुता बतलाकर ब्रह्मप्राप्ति वतलाते हैं, इस पर कहते हैं कि-श्रुति वचन, सत पदार्थ का बोधक है कारक मत का बोधक तो है नहीं । "अप्रतीकालम्बनान्नयति' इस व्यासोक्ति से विरुद्धता न हो इसलिए वहाँ भी अप्रीतकत्व मानना चाहिए । यदि ऐसी बात वहां न होती तो पंचाग्नि विद्या की निरूपिका श्रुति "पश्यन्नवं स" ऐसा न कहती । मोक्ष पक्ष का आसरा लेकर वैसा कहा गया है, ऐसा भी नहीं कह सकते इस प्रकार की बाधा का निराकरण करने से ही श्रुति वचन की निर्बाधता, उक्त विचार से निश्चित होती है । जहाँ वचन की बाधकता बतलाते हैं, वहां बाधबोधकता मात्र ही है यथार्थता बोधक नहीं है। . ननु मनः प्रभृतीनां शुद्ध ब्रह्मत्वे मनोब्रह्मोपास्त इतिवदेन तु प्रकारवाचीति शब्दशिरस्कं ब्रह्मपदमत उपासनाप्रकारावच्छेदकत्वमेव ब्रह्मपदस्य, न तु स्वरूपन्विरूपकत्वमिति चेद्, हन्तेदंशब्दार्थानवगमविज भृतमेव यतो मन

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