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( ६३६ ) तादृशीमिवलीलां दर्शयत्यतो न प्राकृतत्वशङ्कागधोऽप्यत्र । अतएव भगवतोक्तं'मामात्मपर देहेषु प्रद्धिषन्तेऽभ्यसूयका "इत्युपक्रम्य "ततोयान्त्यधमां गतिम्" इति । तेषामासुरत्वेन मुक्त्यनधिकारित्वात् तथाकरणमतः सुष्ठूक्तं-संध्यवदुपपत्तः इति ।
अब बिचारते हैं कि-मोक्षावस्था में तो जीवों की शरीरावस्था प्राकृत शरीर की तरह बतलाई गई है, फिर अप्राकृता कैसे संभव है ? इसका उत्तर देते हैं कि-प्राकृत के समान शरीर के अभाव में उससे संबद्ध लीला का भी अभाव हो जाता है, उस स्थिति में कोई भी प्राकृत धर्म नहीं रहते । यदि प्राकृत धर्म नहीं रहते तो उनका दर्शन कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हैं कि जैसे स्वरूप में प्राकृत वस्तुओं का दर्शन होता है उसी प्रकार इसमें भी होता है। स्वाप्न पदार्थ ईश्वर की इच्छावश दृष्टिगत होती है, वैसे ही मुक्तवस्था में ईश्वरे च्छा से होते हैं । वस्तुतः वे प्राकृत नहीं होते । जैसा कि स्वप्नदशा का श्रुति में वर्णन है “जागृत और सुषुप्ति से अतिरिक्त तीसरा स्वप्न स्थान सन्धि स्थल है, उसमें स्थित जीव, इस लोक और परलोक दोनों को देखता है "जिस प्रकार परलोक में घटित होता है उस प्रकार के पाप और आनन्द दोनों को देखता है" ऐसा उपक्रम करके "स्वयं छोड़कर स्वयं निर्माण कर अपने तेज और अपनी ज्योति से यह पुरुष सोता है, इम स्थिति में पुरुष स्वयं ज्योति होता है, वहाँ न तो रथ, नरथयोग, न पन्थ होता है" इत्यादि । इसी प्रकार भगवान अन्धकारमय दुःखात्मक प्राकृत गुणों का लय करने की इच्छा से, आसुरी प्रवृत्ति वाले जोवों को अपने में प्राकृतत्व बुद्धि करने के लिये उसी प्रकार की लीला दिखलाते है उसमें प्राकृतत्व शंका को गंध भी नहीं है भगवान स्वयं कहते हैं-"मामात्मपरदेहेष प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः “ततीयान्त्यधर्मागतिम् "इत्यादि । आसुरी भाव वाले मुक्ति के अधिकारी नहीं है अतः “संध्यवदुपपत्तः ठीक ही कहा है ।
भावे जानद्वत् ।४।४।१४।।
• लौकिकवद् भासमाने लीला पदार्थे यद् दर्शनं भक्तानां तत् तु भावे विषये विद्यमाने सति भवति । अत्र दृष्टान्तमाह-जानद् वत् । यथा मोहाऽभाववतः पुंसः सत एवार्थस्य दर्शनं तथेति । एताभ्यां सूत्राभ्यामेतदुक्तं भवति । "सोऽश्नुते मर्वान् कामान् सहब्रह्मणा विपश्चिता" इति श्रुत्या भक्तकामपूरणाय भगवल्लीलां करोतीति गम्यते । यदर्शनश्रवणस्मरणभक्तानां दुःखं भवति