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स्वाप्ययसम्मत्त्योरन्यतरापेक्षमाविष्कृतं हि ।४।४।१६।।
इहायमाशयः । प्रकृततावत्वं हि प्रतिषेधतिततोब्रवीति च भूय इत्याद्यधिकरण "परास्यशक्तिर्विविधैव श्रयते स्वाभाविकी ज्ञानबल क्रिया च" इत्यादि श्रुतिभिश्च प्राकृताएवधर्मा निषिध्यन्ते ब्रह्मण्यप्राकृता एव बोध्यन्तेऽन्यथा तद्बोधनमेव नस्यानिषेधक वाक्य एब तद्बोधनमपि न स्यादेतस्यैवाक्षरस्य प्रशासन इत्यादि रूपमतोऽचिन्त्यानन्तशक्तेर्भगवतः का वा कार्माऽक्षमता मया प्राकृतान् गुणानुरीकुर्यादतो निगुणिमेव सदा सर्वत्र भगवद् रूपमिति वक्तव्यम् । एवं सति, "यद्यथापि हिरण्यनिधिनिहितमंक्षेत्रज्ञा उपयु परि संचरंतो न विन्दयुरेवमेवेमाः सर्वाः प्रजा अहरहर्गच्छन्त्य एवं ब्रह्मलोर्क न विदन्ति" इति छांदोग्य श्रुतेः प्रस्वापदशायांन कश्चिद् ब्रह्माश्नाति तश्चि न कंचनेति तद्विषयिणी भोगबोधिका सेति न विरोधगन्धोऽपि । एतदेवाह । स्वाप्ययः प्रस्वापः, स्वमपीतोभवति तस्मादेनं स्वपितीत्याचक्षत इति श्रुतेः । सम्पत्तिब्रह्मसम्पत्तिरुक्तरीत्यापुष्टिमार्गीयोमोक्ष एतयोरन्यतरापेक्षमुभयश्र त्युक्तमित्यर्थः । भगवत्कर्तृक भोगस्य लीलारूपत्वात तस्याश्च, लोकवत्त लीलाकैवल्यमित्यत्र मुंक्तित्वेन निरूपणात् तत्प्राप्तेः सम्पद्रूपत्वं युक्ततरमिति हि शब्दार्थः ।
“परास्य शक्तिः" इत्यादि श्रुति से प्राकृत धर्मों का ही निषेध किया गया है, ब्रह्म में अप्राकृत धर्म ही बतलाए गए हैं इसके अतिरिक्त उनके स्वरूप बोधन ही संभव नहीं है, "एतस्यैववाक्षरस्य प्रशासने" इत्यादि रूपवान अचिन्त्य अनन्त शक्ति वाले भगवान में किस कार्य की क्षमता नहीं है, क्या में प्राकृत गुणों को स्वीकार नहीं कर सकते वे सब करने में समर्थ हैं, इसलिए उन्हें सदा सर्बत्र निर्गुण ही नहीं मानना चाहिए। “यद्यद्यापिहिरण्यनिधि" इत्यादि छांदोग्य श्रुति में जिस प्रश्वाप दशा का वर्णन किया गया है, उसमें ब्राह्मभोग का निषेध है, इसी का संकेत "न कंचनं" इत्यादि से किया गया है। "न कंचन" आदि श्रुति संषुप्ति अवस्था सम्बन्धी है, इसलिए भोग का निषेध है, अतः विरोध की शंका व्यर्थ है। "स्वमपीतोभवति तस्मादेनस्वपितोत्याचक्षते" यह श्रृ ति भी उक्त अर्थ का द्योतन कर रही है। पुष्टिमार्गीय जो ब्रह्मसम्पत्ति अर्थात् मोक्ष है। भगवत्कर्तृक भोग लोलारूप है, लोकवत्त लीलाकैवल्यम्" सूत्र में उसे मुक्तिरूप से निरूपण किया है अतः उसकी प्राप्ति मुक्तिरूप है ऐसा कहना ठीक ही है। . ५. अधिकरण :--