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( ६४८ ) का परम फलत्व निश्चित होता है । “न तत्समश्चाम्यधिकं चदृश्यते' इत्यादि श्रुति, उक्तसाम्य कथन के विरुद्ध है, इस विरुद्धता के परिहार के लिये सूत्रकार मात्र पद का प्रयोग करते हैं', अर्थात् भोग मात्र में साम्यता होती है। आधार पर काम भोग के फलत्व की शंका भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि "माप्नोतिपरम" में स्पष्टतः पर प्राप्ति का उल्लेख है, भोग स्वरूपानुभव रूप होता है । अनुभव में आने वाले सुख को ही लोक में पुरुषार्थ कहा जाता है।
एवं भगवतः स्वतः पुरुषार्थ रूपत्वमुक्त्या कर्मफलभोगनन्तरमावृत्तिवदत्राप्यावृत्तिर्भविष्यतीति आशंका निरासायोत्तपठति
भगवान की स्वतः पुरुषार्थ रूपंता का निरूपण करने के बाद, कर्मफल भोगने के बाद जैसे पुनर्जन्म होता है, वैसे ही भगवत्स्वरूपानुभव के बाद भी होता होगा, इस आशंका के निवारण के लिये सूत्र प्रस्तुत करते हैं
अनाधृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ।४।४।२२॥
अनावृत्तिभक्तनां ज्ञानिनां चोच्यते । तत्रमानं शब्दः । स च-"तयोर्ध्वमापन्नममृतत्वमेति, न तेषांपुनरावृत्तिरेतेन प्रतिपद्यमाना इत्र मानवमावत' नातन्ते, ब्रह्मलोकमभि सम्पद्यते, न च पुनरावत ते" इत्यादि रूपस्तु ज्ञानिनां तामाह । न हि भक्तानांनाड्यादिप्रयुक्तममृतत्वम्-"तस्मान्मद् भक्ति युक्तस्य योगिनो वैमदात्मनः, न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयोभरेदिह ।" इत्यादि वाक्येभ्यः । किन्तु "यमेवेति' श्रुतेर्वरणमात्रलम्य पुरुषोत्तमः । एवं सति "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इति श्रु तेविरोध परिहार पूर्वकोक्तव्याख्यानरीत्या भक्तस्य परं ब्रह्म प्राप्तस्य निर्दोषत्वादाबृत्ति हेत्वंभावात् प्रपंचेऽनावृत्तिः सम्भवति । यादृशंप्रति ईश्वरेच्छपि न तथा भवितुमर्हति । “ये दारागारपुत्राप्तप्राणान् वित्तमिमंपरम् हित्वा मां शरण याताः कथं तास्त्यक्त मुत्सहे "इति भगवद् वाक्यात् पर प्राप्ति रूपत्वाच्च भोगस्य न नाश संभावना । किंच यत्रकस्यैव भक्तस्य देश कालभेदेनानेकविधलीला संबन्धित्वेऽपि तत्तल्लीला संबंधित्वमनश्वरमुच्यते तत्र सर्वथा तदभावः कथं वक्तु शक्यो ब्रह्मणापि ।
ज्ञानी और भक्त को अनावृत्ति बतलाई.गई है, शब्द ही उसका प्रमाण है। जैसे कि उस नाडी से ऊपर पहुंच कर अमृत प्राप्त करता है" उसकी पुनरा वृत्ति नहीं होती। ब्रह्मलोक की प्राप्ति करते हैं इत्यादि ऋतियां. ज्ञानियों से