Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 732
________________ ( ६४६ ) सम्बन्धित हैं । भक्तों की नाडी आदि से ही मुक्ति हो ऐसा आवश्यक नहीं है।" मेरी भक्ति में लगे हुये भक्त योगी के लिए ज्ञान वैराग्य कल्याण प्रद नहीं है। "यमेवैतिवृणुते" इत्यादिश्रुति के अनुसार पुरुषोत्तम, वरणमात्र लभ्य हैं । "ब्रह्म विदाप्नोति परम श्र ति, उक्त श्रुति से विरुद्ध ही कुछ कहती है, उक्त विरुद्धता का परिहार करते हुये, उक्त प्रकार की व्याख्यान रीति से पर ब्रह्म प्राप्त भक्त की निर्दोषता बतलाते हैं निर्दोष भक्त को जगत में आवृत्ति हो ही नहीं सकती, उसकी आवृत्ति के लिये ईश्वरेच्छा भी नहीं हो सकती ।" भक्त, स्त्री घर पुत्र बन्धु प्राण धन आदि सभी का मोह त्याग कर मेरी शरण में आ जाता है उसे में कैसे छोड़ सकता हूँ" इस भक्तिवास्य से, और पर प्राप्तिरूप मुक्ति प्राप्त कर लेने पर भक्त के भोग के नाश की संभावना ही नही रह जाती । एक ही भक्त काल के भेद से अनेक लीलाओं से सम्बन्धित होते हुये भी, उनको उन उन लीलाओं मे अनश्वर संबंध कहा गया है तब उसके अभाव की बात ब्रह्मा भी नहीं कह सकते। अपरंच-काल' साध्योहि नश्वरः स्याद् नहि पुरुषोत्तमे कालः प्रभवितु शक्नोति "न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः "इत्यादि वाक्येम्यः । तथा च ज्ञानमार्गीय भक्तिमार्गीययोरनावृत्तौ तुल्यत्वेऽपि फलप्राप्तौ वेलक्षण्यात पूर्ववाक्येन भक्तानामाहाऽनावृत्ति मुत्तरावाक्येन ज्ञानिनामिति ज्ञायते । न च फल प्रकरणान्तेऽनावृत्युक्ते सारा भाव एव जीवस्य परमं फलमित्याचार्याभिप्रायो ज्ञायत इति वाच्यम् । ब्रह्म विदः पर प्राप्ति फलत्वेनोक्त्वा तत् स्वरूपस्य सर्वकामभोगत्वेन श्रुत्या निरूपणात्। स च स्वस्वाधिकाराऽनुसारेण निवेदितार्थाङ्की काररूप एवेति ज्ञेयम् । तेन स एवं परमंफलमनावृत्तिस्त्वाथिको । परंत्वावृत्ती संभवंत्यां परमफलत्वं नोपपद्यते ज्ञानदुर्बलशंका निरासायेयमुक्ता। पुष्टिमार्गीय भक्त विशेष प्रवर्तक निवर्तकवे शब्दाभगवन्निकटगतावऽनावृत्तिः पूर्वेणोक्ता मर्यादामार्गोयाणां वेदरूपाच्छब्दात तदुक्तसाधनादनावृत्ति द्वितीयेनेत्यपि तात्पर्य विषयः श्लिष्टोऽर्थों ज्ञयः । तथा सति परम फलमने स्वत एव भावीति भाव इत्यलं विस्तरेण । . नश्वरता काल साध्य होती है, पुरुषोत्तम पर काल का प्रभाव पड़ता नहीं, "न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः" इत्यादि वाक्य है । उक्त मत की पुष्टि होती है । ज्ञानमार्गीय और भक्तिमार्गीय दोनों की आवृति समान होते हुए भी फल प्राप्ति दोनों को विलक्षण होती है, इसीलिए पूर्व वाक्य से भक्तों की तथा उत्तर वाक्य से ज्ञानियों की अनावृत्ति कही गई है।

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