________________
( ६४७ ) ऋचा है । इनमें भगवत्स सम्बन्धी गोलोक धाम की कामना की गई है जहाँ गोकुल में गौएं और अनेक सोंगों वाली मृग विहार करते हैं । इस धाम के विषय में- भूमावेव तदुरुगायस्व इत्यादि में बतलाते हैं कि यह भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले वैकुण्ठ धाम से भी श्रेष्ठ हैं क्योंकि यहाँ भगवान ने विचित्र लीलायें की हैं। यमुना पुलिन निकुज गोवर्द्धन आदि बहुरूप लीला स्थल इस गोलोक में है, उन सभी लीलास्थलों की कामना इन मंत्रों में की गई है। इसमें गूढ आशय निहित है कि जहाँ लीला सम्बन्धी वस्तुओं की फलरूप से प्रार्थना की गई है, फिर लीलाधारी प्रमु के स्वरूप की यदि कामना की जाय तो क्या कहना है । वहाँ के सम्बन्ध में भागवत में स्पष्ट उल्लेख भी है-"आपके महिमा मृत समुद्र में अवगाहन कर एक बार भी जिसने आस्वादन कर लिया है वे भक्त अपने अन्तःकरण में स्पन्दित दिव्य सुख के समक्ष दृष्ट श्रत समस्त लौकिक सुखों को भूल जाते हैं ।" इन वर्णनों से भी कैमुतिक न्याय से प्रभु की ही स्वतः पुरुषार्थता ज्ञात होती है । यह फल प्रकरण है, यही आचार्य का तात्पर्य भी है।
भौगमात्रसाम्यलिंगाच्च ।४।४।२१।।
इतोऽपिहेतोः पुरुषोत्तमस्वरूपमेव परमंफलमिति ज्ञायतेयतः "सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता" इति श्रु तौभक्तसाम्यमुच्यते । तच्चपुरुषोत्तम एव सम्भवति । यतः सख्यं दत्त्वा तत्कृतमात्मनिवेदनमंगोकुर्वन्नतिकरुणः स्वस्वरूपानन्दमनुभावयस्तं प्रधानीकरोति । अन्यथा भक्तोऽनुभवितु नशक्नुयात् । युक्त चैतत् । प्रातफलं स्वाधीनं भवत्येवान्यथा फलत्वमेव नस्यात् । तथा चास्माल्लिगादपि प्रभोरेव परमफलत्वं सिद्धयति । "न तत्समश्चाभ्यधिकं च दृश्यते" इति श्रु तिविरोधपरिहाराय मात्रपदम् । न चात्रकामभोगस्य फलत्वं शंकनीयम् । "आप्नोति परम् ।" इत्येतद्व्याकृतिरूपत्वात् स्वरूपानुभवरूपत्वाद् भोगस्य । अनुभूयमानस्ये हि सुखस्य लोके पुरुषार्थत्वोक्तः ।
इसलिये भी पुरुषोत्तम स्वरूप ही परम फल ज्ञात होता है कि-"सोऽश्नुते इत्यादि श्रुति में भक्त साम्य दिखलाया गया यह साम्य पुरुषोत्तम की कृपा से ही संभव है । वे प्रभु सख्य प्रदान कर उसके द्वारा किये गये आत्मनिवेदन को स्वीकार कर उसे स्वरूपानंद का अनुभव करा कर प्रधानता प्रदान करते हैं। अन्यथा भक्त अनुभव नहीं कर सकता । जो फल उसे प्राप्त होता है वह स्वतंत होता है यदि वह स्वतंत्र नहीं है तो उसे फल नहीं कह सकते । इस साम्य से ही प्रभु