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रूप में तो एक ही बार प्रवेश होता है । सभी जीवों में भगवान स्वभावतः ही रहते हैं, किन्तु जिसे वे अपना मानकर वरण करते हैं उसे विवाहित पति की तरह भर्ती होकर, वरणज स्नेहातिशय से भक्त से भी पोषित होकर, उसके भक्त की तरह व्यवहार करते हैं, वह भक्त फिर स्वयं भी अपनी भक्ति से पोषित होता रहता है । इसीलिए व्यास जी स्नेह रहित लोहे के गोले का उदाहरण न देकर प्रदीप का दृष्टान्त देते हैं लोहे का गोला अग्नि से प्रज्वलित होने पर स्नेह रहित होने से ठंडा हो जाता है] देव पद भी विशेष प्रयोजन से आया है । स्वरूपानन्द के दान से, भावोद्दीपन से, पूतना आदि को मुक्ति देने से, अपने माहात्म्य के द्योतन से और वैकुण्ठ आदि की स्थिति से देव पद चरितार्थ होता है । निरुक्त में इन्हीं अर्थों में इसको स्वीकार किया गया है"दिव शब्द, दान, दीपन, द्योतन, द्युस्थानीय है।" भक्तों के काम भोग के लिए, क्रीडा करने से, क्रीडा में जय की इच्छा करने से, भक्तों के साथ व्यवहार करने से, भक्तों में अपने माहात्म्य द्योतन करने से, "न पारयेह" "म स्वादशी" इत्यादि स्तुति करने से, भक्त प्रपत्ति दर्शन से, कालीयदमन आदि लीलाओं में मोह करने से, उन्हीं लीलाओं में भक्तिमान करने से, वे स्वप्न में भी प्रिय को ही देखते हैं, ऐसे स्वप्न दिखलाने से उनके कान्ति करने इच्छा करने आदि से, उनके निकट गमन से भी देव पद चरितार्थ होता है । धातु पाठ में भी दिव इन्हीं अर्थों का द्योतक कहा गया है-"दिवु धातु क्रोडा, विजगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोह, मद, स्वप्न, कान्ति, गति अर्थों में प्रयुक्त होती है।" इसलिए उनकी वह सभी लीलाएं उचित हैं, ऐसा सूत्रस्थ हि शब्द से दिखलाते हैं।
नन्वस्थूलमनण्वहृस्वमित्याद्यनन्तरं पठ्यते-"नतदश्नोति कंचन न तदश्नोति कंचन" इति उक्त श्रुतौ च ब्रह्मणा सह जीवस्य भोग उच्यते । तथा च सगुणनिर्गुणभेदेन विषयभेदोऽवश्यं वाच्यो, विरोधपरिहाराय इत्यत उत्तरं पठति
अस्थूल, अनणु, अहस्व, इत्यादि के बाद 'न तदश्नोति कंचन न तदश्नोति कंचन" पाठ आता है, इस श्रुति में ब्रह्म के साथ जीव का भोग बतलाया गया है । उक्त प्रसंग में सगुण निर्गुण भेद से विषय भेद तो मानना ही पड़ेगा । इस विरोध के परिहार के लिए सूत्र प्रस्तुत करते हैं