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इत्यादि तथा "सहस्रशीर्ष देवम्" इत्यादि श्रुतियों से शुद्ध ब्रह्म और उससे विपरीत दर्शन में हेतु दिखलाए गए हैं। जो विपरीतता है वह आसुर भाव वालों को कामोहित करने की दृष्टि से ही है, यही पूर्व सूत्र से उपपादन किया गया है भक्तों को स्वरूपानन्द देने के लिए, लोक के समान लीला करते हैं, जैसे कि बच्चों की तरह पगइयां चलना आदि वह भक्तों को स्वाभाविक आनन्दात्मक रूप से प्रत्यक्ष ही प्रतीत होती है, यह दूसरे सूत्र में बतलाया गया है । इस प्रकार लीला अनेक प्रकार की होती है। श्रुति में सैन्धव के दृष्टान्त से एक रसत्व के निरूपण से जो दिखलाया गया है उससे तो शुद्ध ब्रह्मधर्मत्व संभव नहीं है, इस शंका के निराकरण के लिए श्रुति में 'कैवल्य' पद का प्रयोग किया गया है । " साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च" इत्यादि श्रुति में जो अन्य धर्मों से रहित केवलता बतलाई गई है, वह लीलात्मक ही है, शुद्ध परब्रह्म की लीला विशेष की ही द्योतक है, उन गुण आदि से रहित की द्योतक नहीं है । उस प्रकार के स्वरूप ' भी वे लीला करते हैं, इसी होता है । इसी से नित्यता भी निश्चित होती है। इसका विद्वन्मण्डन ग्रन्थ में किया गया है। यह कहना अत्युक्ति न होगा कि — केवल लीलाही जीवों की मुक्ति है । उस लीला में प्रवेश होना परम मुक्ति है ।
अर्थ का द्योतन विवेचन हमने
४ अधिकरण :
प्रतीपवदा वेशस्तथाहि दर्शयति | ४|४|१५||
ननु पूर्णज्ञान क्रियाशक्तिमता ब्रह्मणा तुल्यभावेन तत्रापि प्रधानभावं प्राप्य कामभोगकरणमपूर्ण ज्ञानक्रियावतो भक्तस्यानुपपन्नमित्या शंकायां तत्रोपपत्तिमाह - न हितदा नैसर्गिक ज्ञान क्रियाभ्यां तथा भोक्तु शक्तिो भवति, किन्तु भगवांस्तस्मिन्नाविशति यदा तदाऽयमपि तथैव भवतीति सर्वमुपपद्यते । एतदेवाह - प्रतीपवदिति । यथा प्राचीनः प्रकृष्टो दीपः स्नेह युक्तायां वर्यामर्वाचीनायामाविष्टः स्वसमानकार्यक्षमां तां करोति स्नेहाधीन स्थितिश्च भवति स्वयं तथाऽत्रापीत्यर्थः । अत्र प्रमाणमाह - तथाहि दर्शयत श्रुतिः - " भर्त्ता संम्रियमाणो विभत, एको देवो बहुधा निविष्टः " इति ।
पूर्ण ज्ञान क्रिया शक्ति वाले ब्रह्म से तुल्यभाव और भाव को प्राप्त कर कामोपभोग करने में, अपूर्ण ज्ञान क्रिया संभव है ? इस शंका का समाधान करते हैं कि उस
उसमें भी प्रधान वाला भक्त, कैसे स्थिति में भक्त स्वा