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तत्प्राप्तेनि भित्तत्वं यतो विभूतिरूपाणामपि पुरुषोत्तमेलयो नानुपपन्नः । " आत्मरतिः इत्यादिना "सोऽश्नुते" इत्यनेन च शरीरत्वम् ।
ब्रह्म के साथ समस्त कामनाओं को भोगने वाला शरीर है भी नहीं भी है । यह शरीर भूतजन्य और व्यापक होने से तो शरीर है तथा भोगायतन होने से शरीर रूप भी हैं, ऐसी बादरायणाचार्य की मान्यता है । इसका प्रमाण श्रुति ही है - जैसे कि "भूमा ही विशेष रूप से जानने योग्य है "ऐसा कह कर उसका स्वरूप बतलाते हैं कि - " जो भूमा है वही वास्तविक सुख है" ऐसा उपक्रम करके आगे कहते जिस स्थिति में न कुछ दूसरा देखता है, न दूसरा सुनना है, न दूसरा कुछ जानता है वही भूमा है" इस श्रुति से पुरुषोत्तम को केवल भावविषय बतलाकर केवल भाव वाले भक्त की वियोगावस्था का वर्णन करते हैं कि "वही नीचे वही ऊपर वही मागे दृष्टिगत होता है ।" वह उसे इस प्रकार देखता, इस प्रकार जानता, इस प्रकार मानता है" इत्यादि पूर्वावस्था का उल्लेख का संयोगावस्था बतलाते हैं कि - "यह वाक्य सोऽश्नुते" इत्यादि श्रुति वर्णित स्थिति को बतला रहा है इसके बाद भक्तस्वरूप का वर्णन करते हैंउसको इस प्रकार देख कर इस प्रकार मानकर इस प्रकार जानकर “ऐसा उप क्रम करके अन्त में कहते है कि - "यह सब कुछ अत्मा से ही है ।" इस प्रसंग से अशरोरता निश्चित होती है । अव्यय के प्रयोग से अविकृत पुरुषोत्तम से ही प्राण आदि का आविर्भाव बतलाते हैं । यहाँ ल्यब के लोप होने से पंचमी विभक्ति है । पहले विरह दशा में प्राण आदि भगवान में हो लीन थे, बाद में जब उनका प्राकट्य हुआ तो वह भक्त भी प्राण आदि से सम्पन्न हो गया, यदि उसकी प्राप्ति में यही सब निमित्त है यदि इनका प्रादुर्भाव नहीं मानेंगे तो, विभूति रूपों की पुरुषोत्तम में लय होने की बात भी नहीं बनेगी । " आत्मरतिः " इत्यादि और "सोऽश्नुते " इत्यादि से शरीरता निश्चित होती हैं ।
जैमिनिरप्यत एव ब्रह्मेणेति मनुते । एकस्य विरुद्धोभयधमं वत्वममन्वानं प्रति वैदिकं प्रमाणमाह — द्वादशाह वदिति । "यः कामयेत प्रजापेयेति स द्वादशरात्रेण यजेतेति चोदनया द्विरात्रेण यजेत्" इत्यादिवन्नियत कत्तु कत्वेना हीनत्वं गम्यते । द्वादशाह मृद्धिकामा उपेयुः " स एवं विद्वांसः सत्रमुपयंति " इति श्रुत्या च सत्रत्वं बहुकर्त्तृ कस्य गम्यते । एवमेव द्वादशाङ्गशरीरेन्द्रिय प्रणान्त: करणात्मभिरश्नुत इति सत्रतुल्यत्वम् । वस्तुतो भगवद् विभूतिरूपत्वेन ब्रह्मात्मत्वेनेकरूपत्वम तो द्वादशाहवदुभयविधम् । सत्रे प्रत्येकं चेतनानांयजमानानां फलभागित्ववदत्रापि