Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

View full book text
Previous | Next

Page 715
________________ ( ६३२ ) ज्ञान शक्ति वाले सर्वज्ञ परमात्मा का उक्त कथन मिथ्या हो जायगा । पुष्टिमार्ग भमवत् कृपा से ही साध्य है, समस्त प्रमाणों से विलक्षण है, उसमें विश्वास ही एक मात्र प्रमाण है। अभावं वादरिराहा वम् ।४।४।१०॥ मुक्तोऽपिजीवः पुष्टिमार्गेऽङ्गीकृतो भगवद्दत्त विग्रहं प्राप्त भजनानन्दं प्राप्नोतीति सिद्धम् । अत्र प्रत्यवतिष्ठते । बादरिराचार्योमुक्तस्य देहाद्यभावं मनुते तत्र हेतुराह ह्येवमिति, ब्रह्मविदो हि मुक्तिरुच्यते-“यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति" इत्यादि उक्त्वा, "यत्रत्वस्य सर्वमात्मैवाभूत तत् केनकं पश्येत्” इत्यादिना द्वितीयज्ञाननिषेधमाह - ब्रह्मविदः श्रुतिः । तथा च तस्य कामभोगवार्ता दूरतरेति, तदाक्षेप्यदेहोऽपितथा। पुष्टिमार्ग में स्वीकृत मुक्त जीव भी भगवद्प्रदत्त विग्रह को प्राप्त कर भजनानन्द को प्राप्त करते हैं यह सिद्ध हो गया। इसके विरुद्ध बादरि आचार्य मुक्त जीव के देह आदि को नहीं मानते । वे कहते हैं कि-ब्रह्म वेत्ता की हो मुक्ति बतलाई गई है-"जहाँ द्वतभाव होता है वहाँ अपने से भिन्न मानता है" इत्यादि कहकर “जहाँ सर्वात्मभाव हो जाता है वहाँ कौन किस अपने से भिन्न देखेगा" इत्यादि में द्वतज्ञान का निषेध किया गया है, यह ब्रह्मवेत्ता से संबंधित श्रति है । ऐसे अद्वैत भाव वाले जीव की कामभोग की बात तो बहुत दूर है, उसके शरीर की कल्पना भी अशक्य है । भावं जैमिनिनिर्विकल्पामननात् ।४।४।११॥ जैमिनिराचार्यस्तु मुक्तस्य पुसो देहादेभीवं सत्तांमन्यते तत्र हेतुर्विकल्पेत्यादि ब्रह्मविदाप्नोति परंमिति श्रुत्या ब्रह्म ज्ञानस्य तत्प्राप्तिसाधनत्वमुच्यते । नायमात्मेति श्र त्या तु वरणमात्रप्राप्यत्वम् । “सोऽश्नुत" इत्यादिना च परप्राप्त्युपन्यास क्रियते । “इहैव समवनीयन्ते, ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येतीति च पठ्यते । एवं सति मिथो विरोधे तदाभावायोक्त व्याख्यान रीत्या ज्ञानमार्गीयस्य ब्रह्मज्ञानेमाक्षर ब्रह्मप्राप्तिः पुष्टिमार्गीय भक्तस्य तु 'सोऽश्नुत" इत्यनेनोक्ता पर प्राप्तिरिति व्यवस्थित विकल्प एव श्रु त्यमिमत इति ज्ञायते । तेन नायमात्मेति श्रुतिः पर प्राप्ति विषयिणी। इहैवेत्यादि श्रुतिस्तु मर्यादामात्मक विग्रहवत्वं निष्प्रत्यूह सिद्धयति । तत् के न कं पश्येदित्यादिना ब्रह्मज्ञान समायिकी व्यवस्थामाह । व तु तदुत्तरकालीन पर प्राप्ति सामयिकीमिति किमनुपपन्नम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734