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( ६३३ ) जैमिनि आचार्य मुक्त पुरुष को देहादि भाव सत्ता मानते हैं उसमें वे तर्क प्रस्तुत करते हैं कि-"ब्रह्मविदाप्नोति परम "श्रु ति से ब्रह्म ज्ञान को ब्रह्म प्राप्ति का साधन बप्तलाया गया है। "नायमात्मा" श्रुति से वरण मात्र से प्राप्यता बतलाई गई है । "सोऽश्नुते' इत्यादि श्र ति से पर प्राप्ति में होने वाला स्थिति का विश्लेषण किया गया है । इन श्रुतियों से एकदम विपरीत-"इहैव समवनीयन्ते, ब्रह्मै ब्रह्मन् ब्रह्माप्येति 'इत्यादि श्रुति भी है । इस प्रकार के पारस्परिक विरोध के परिहार के लिये यही मानना उपयुक्त है कि-ज्ञानमार्गीय, ब्रह्मज्ञान से अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति करता है तथा पुष्टिमार्गीय भक्त "सोऽश्नुते" इत्यादि श्रुति में कहे गये स्वरूपानुसार पर प्राप्ति करता है । दोनों मार्गों की विभिन्न प्रकार की व्यवस्था श्रति सम्मत ही है। "नायमात्मा" श्रुति पर प्राप्ति सम्बन्धी है । "इहैव समवलीयन्ते' इत्यादि श्रुति को मर्यादामार्ग संबंधी मानना चाहिये । इस दृष्टि से पुष्टिमार्गीय भक्त का भोग साधनात्मक बिग्रहवान होना निर्विवाद सिद्ध हो जाता है । “तत केनकं पश्येत्" इत्यादि में ब्रह्म ज्ञान के समय की स्थिति बतलाई गई है उसके बाद की पर प्राप्ति के समय की स्थिति का वर्णन नहीं है, इसलिये क्या असंगति है।
द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः ।४।४।१२॥
ब्रह्मण सह सर्वकामाशन प्रयोजकं शरीरं शरीरत्वस्य भूतजन्यत्वव्याप्यत्वात्तदभावेनाशरीर रूपं तद्भोगायतनत्वेन शरीररूपमपीति बादरायण आचार्यों मन्यते । अत्र हेतुरत इति, तथाविधश्रु तेरित्यर्थः । तथाहि “भूमैव विजिज्ञासतव्यम्" इत्युक्त्वा तत्स्व रूप माह-'यो वै भूमातत्सखम्" इत्युपक्रम्यान उच्चते -“यत्रनान्यत् पश्यति नान्यच्छणोति नान्यद्विजानाति स भूमा" इत्यनेन केवल भावविषयत्वं पुरुषोत्तम लक्षणमुक्त्वा केवलभाववतो भक्तस्य विप्रयोग सामयिकी व्यवस्थामाह-“स एवाधस्तात् स उपरिष्टात् स पश्चात स पुरस्तात्" इत्यादिना । ततः “स वा एष एवं पश्यन्न मन्वान एवं विजानन् “इति पूर्वावस्थामनूद्य संयोगावस्थामाह-"आत्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्दः "इति वाक्येन सोऽश्नुत" इति श्रुति संवादिनमर्थमुक्त्वा भक्तस्वरूपमाह--"तस्य ह वा एतस्यैब पश्यत एवं मन्वानस्यैवं विजानत आत्मतः प्राण ' इत्युपक्रम्य "आत्मन एवदं सर्वम्" इति । तेनाशरोत्वं सिद्धयति । अव्ययप्रयोगेण अविकृतादेव पुरुषोत्तमात् प्राणाद्याविर्भाव उच्यते । अत्रल्यब्लोपे पंचमी पूर्व विरहदशयां प्राणा . दयो भगवत्येव लीना आसंस्ततस्तत्प्राकट्ये तत एव प्राणादयोऽपि सम्पन्ना इति