Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

View full book text
Previous | Next

Page 718
________________ तादृग्भक्त देहादीनामपि ब्रह्मात्मकत्वाच्चे तनत्वमेवेत्यन्यनेन दृष्टान्तेन ज्ञाप्यते । अतएव श्रीभागवते- 'देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम् "इति गीयते । जैमिनि भी इसीलिये ब्रह्म शरीर मानते हैं। एक ही वस्तु में विरुद्ध बातों को मानने में वैदिक द्वादशाह यज्ञ को उदाहरण रूप से प्रस्तुत करते हैं । "जिसे संतान की कामना हो उसे द्वादशाह यज्ञ करना चाहिए" इत्यादि नियत कत्तु व्य के उल्लेख से अहीनता ज्ञात होती है । “समृद्धि की कामना से द्वादशाह यज्ञ करना चाहिये' इस प्रकार विद्वान लोग सत्र करते हैं" इत्यादि श्रुतियों से यज्ञ की बहुकर्त्त ता ज्ञात होती है। इसी प्रकार इन्द्रिय प्राण अन्तःकरण अदि बारह अंगों वाले शरीर से भोग भी यज्ञ के समान होगा हैं। वास्तव में तो भगवद् विभूतिरूप होने से वह ब्रह्मात्मक होने से एक रूप हो है, किन्तु द्वादशाह यज्ञ की तरह उभय रूप भी है। यज्ञ में जैसे प्रत्येक चेतन यजमान फलभायी होता है वैसे ही भक्त के देहादि भी ब्रह्मात्मक होने से चेतनता प्राप्त करते हैं, यही इस दृष्टांत से निश्चित होता है । श्री भागवत में स्पष्टतः कहा भी है"देह इन्द्रिय प्राण रहित वैकुण्ठ वासियों का" इत्यादि । ३. अधिकरण :--- तत्वभावे सन्ध्यवदुपपत्तः ।४।४।१३।। अथेदं चिन्त्यते-भगवत्स्वरूप प्राकृतशरीर इवावस्था दृश्यन्ते तत्कालीनैः पुम्भिरिति कथन प्राकृतत्वमुपपद्यत इति तत्रोपपत्तिमाह-तद्दर्शनस्य वास्तववस्तु विषयकत्वव्यवच्छेदेन पूर्वपक्षव्युदासाय तु शब्दः । तत् प्राकृततुस्यदर्शनम भावे तथात्वस्याभाव एव भवति, न तु तत्र प्राकृता धर्माः सन्ति । नन्वविद्यमाना मर्थानां कथं दर्शनमुपपद्यत इत्यत आह–सन्ध्यवदिति । स्वप्ने यथा वासनावशाद विद्यमानानामप्यर्थानां भवति तथा भगवदिच्छावशात् तत्रापि प्राकृततुल्यत्व दर्शनस्योपपत्तेर्न प्राकृतत्वं तत्र ज्ञ यमित्यर्थः । तथा च श्रुतिः “संध्वंतृतीयं स्वप्नस्थानं तस्मिन् संध्ये स्थाने तिष्ठन्न मे स्थाने पश्यतीदं च परलोक स्थानं च । अथ यथाक्रमोऽयं परलोक स्थाने भवति तमाक्रममाक्रभ्योभयान् पाप्मन आनंदांश्च पश्यति स यत्रायं स्वपिति" इत्युपक्रम्य-"स्वयं विह्वय स्वयं निर्माय स्वेन भासास्वेन ज्योतिषा प्रस्वपिति अत्रायं पुरुषः स्वयं ज्योतिर्भवति, न तत्ररथा नरथभोगा न पन्थानो भवन्ति" इत्यादि रूपा । एवमेव भगवानासुराणां प्राकृत गुणे तमस्येव दुःखात्मके लयं चिकाएं स्वस्मिन प्राकृतत्वबुद्धि संपादनाय

Loading...

Page Navigation
1 ... 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734