Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 705
________________ (६२२ ) पुरुषोत्तम प्राप्ती । एवं सत्यक्षरब्रह्मज्ञानस्य तत्साधनत्वे उच्यमाने तद्विरोधः स्यात् तेनैवमेतदर्थों निरूप्यते । यह निश्चित हो चुका है कि सारे ही उपास्य रूप ब्रह्म रूप ही हैं उनके उनके उपासकों को उन उपासनाओं के फलस्वरूप परब्रह्म प्राप्ति ही होती है । अब विचारते हैं कि ज्ञानमार्गीय और भक्तिमार्गीय जीवों की सामान्यतः एक-सी परप्राप्ति होती है या कुछ विशेष प्रकार की होती है ? हैं तो दोनों ही ब्रह्म उपासक अतः दोनों को एक ही सी ब्रह्म प्राप्ति होती होगी । इस विचार कर सूत्रकार कहते हैं कि विशेष प्रकार से होती है, श्रुति में स्पष्ट उल्लेख है । तैतरीयक में पाठ है, "ब्रहविद पर प्राप्ति करता है", इस पाठ में गूढाभिसंधि सामान्य उल्लेख करके उस गूढ़ता को बड़े ही गोपनीय ढंग से उद्घाटन करते हुए इस तत्व को अनुभवैकगम्य बतलाते हैं-"तदेषाऽभ्युक्ता, सत्यंज्ञानमनंतं ब्रह्म, वोवेद निहितगुहायां वरमेक्योमन् सोऽध्नेते सर्वान् कामान सह ब्रह्मणांविपश्चिता" इत्यादि । "ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" ऋचा के प्रतिपादन के लिए ही उक्त ऋचा कही गई है, उनके अनुभव करनेवालों को ही परप्राप्ति होती है, यही गूढाशय है । ब्रह्मविद् का तात्पर्य है, अक्षरब्रह्मविद्, सानिध्य होने से अक्षर की ही प्राप्ति करता है, यही बात है “योवेद" इस ऋचा में कही गई है। परमाप्नोति" इस अर्थ को "निहितम्" इत्यादि ऋचा से प्रस्फुटित किया गया है। इन ऋचाओं से मध्य का क्रियावद दोनों के संबंध का ज्ञापक है । परप्राप्ति, मर्यादा और पुष्टिभेद से दो प्रकार की होती है। ज्ञानमागियों की प्राप्ति मार्यादी होती है यही आशह जानना चाहिए । “नायमात्या प्रवचनेन लभ्य" इत्यादि । श्रुति पुरुषोत्तम प्राप्ति में भगवद्धरण को अतिरिक्त साधन का निरास करती है। प्रवचन आदि साधन अक्षरब्रह्मज्ञान सम्बन्धी है परब्रह्म ज्ञान में इनकी विरुद्धता है, यही भाव इस ऋचा में दिखलाया गया है। ज्ञानमार्णयाणामक्षरज्ञानेनाक्षरप्राप्तिस्तेषांतदेकपर्यवसावित्वात्, भक्तानामेव पुरुषोत्तमपर्यवसायित्वात् । तदुक्तं भगवद्गीतासु-"एवं सतत् युक्ता य" इति प्रश्ने "मध्य्यावेश्य मनो ये मां, येत्वक्षरमनिर्देश्यम् । श्रीभागवते च--" "भक्त्या हमेंकयाग्राह्यः, तस्मान्मद् भक्तियुक्तस्य" इत्युषकम्म । “न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह" इत्यादिना। तथा च ब्रह्मविदं चेद भगवान् कृणुते भक्ति सदेति । तत्प्रचुरभावे' ससिस्वयंतहृदिप्रकटी भविष्णुः स्वस्थान

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