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( ६२६ ) दिति- "सोऽश्नुतेसर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता" इति श्रुतिः पुरुषोत्तमेन सह सर्वकामभोगं वदति सच न विग्रहं विनासम्भवतीति श्रुतिबलादेव तथा मंतव्यमित्यर्थः।
जो यह कहा कि-"न स पुनरावर्त्तते" इत्यादि श्रु नि से विरोध और कर्म का अभाव बाधक होता है उस पर सूत्रकार स्वेन पद का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि-उक्त श्रुति में ब्रह्म शब्द का स्पष्ट उल्लेख है, जिसका तात्पर्य होता है कि भगवत्स्वरूप के बल से ही जीव के रूप का आविर्भाव होता है, उक्त श्रुति मर्यादामार्ग से सम्बन्धित है अतः विरोध का प्रश्न ही नही होता । उन मर्यादी जीवों की इस प्रपंच में पुनरावृत्ति नहीं होती यही श्रुति का भाव है । लीला प्रपंच से अतीत होती है अतः वहाँ आविर्भाव का प्रश्न ही नहीं उठता इसलिए भी विरुद्धता नहीं है इसका प्रमाण उस श्रुति के शब्द ही है "सोऽश्नुते" इत्यादि श्रुति पुरुषोत्तम के साथ समस्त कामोपभोग बतलाती है, जो कि बिना विग्रह के सम्भव नहीं है।
हेत्वन्तरमाह-अबदूसरा हेतु उपस्थित करते हैं
युक्तः प्रतिज्ञानात् ।४।४।२।। ___ अत्रोपक्रमे "ब्रह्मविदाप्नीति परम्" इति वाक्येन परप्राप्तिलक्षणां मुक्ति प्रतिज्ञाय हि "सोऽश्नुत" इत्यादिना क्रियते तेन पुष्टिमार्गीय मुक्तिरूपत्वमेव तस्याशनस्य सिद्धयत्यतोऽपि हेतोस्तदीविर्भावस्य न लौकिकत्वं, न चावृत्तिरूपत्वमित्यर्थः। ___ उक्त वाक्य के उपक्रम में "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" से पर प्राप्तिलक्षणा मुक्ति की जो चर्चा की गई है उसे ही 'सोऽश्नुते' इत्यादि से दिखलाया गया है, इसमे पुष्टिमार्गीय मुक्ति स्वरूप की बात ही निश्चित होती है, यह अलौकिक स्थिति है अतः जीव का आविर्भाव लौकिक नहीं होता और न उसको पुनरावृत्ति ही होती
आत्माप्रकरणात् ।४।४॥३॥
ननु परस्य ब्रह्मणो निर्गुणत्वात् कामभोगस्य गुणसाध्यत्वात् सह ब्रह्मणेत्यत्र ब्रह्मपदं सगुणतत्परमतो न तस्य मुक्तिरूपत्वमित्यताह । अत्रब्रह्मपदेनात्मा