Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 708
________________ चतुर्थ अध्याय चतुर्थ पाद १ अधिकरण : संपद्याविर्भावः स्वेन शब्दात् ।४।४।१।। "ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" इत्युपक्रम्य "सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणाविपश्चिता" इति तत्तरीयके पठ्यते । तत्रेदं संदिह्यते-किमन्तः स्थित एव अश्नुते, उतपुनर्जन्म प्राप्येति । तत्राऽन्त्यस्त्वनुपपन्नः, न स पुनरावर्त्तते, तेषामिह न पुनरावृत्तिरस्तीत्यादि श्रुतिविरोधात् कर्माभावाच्चेतिप्राप्त प्रतिवदति संपद्य, ब्रह्मसंपद्यापिस्थितस्य जीवस्य प्रभोरत्यनुग्रहवशात् स्वरूपात्मकभजनानन्ददित्सायां तत्कृत आविर्भावो भवत्येव । भगवदधीनत्व ज्ञापनायास्य तत्र कत्तु त्वं नोक्तम् । "ब्रह्मविद पर प्राप्ति करता है" ऐसा उपक्रम करके "वह ब्रह्म के साथ समस्त कामनाओं का भोग करता है" ऐसा तत्तेरीय का पाठ है । इस पर संदेह होता है कि अन्तःकरण में स्थित होकर ही भोग करता है अथवा पुनर्जन्म प्राप्त करके भोगता है ? अन्त: में तो सम्भव है नहीं क्योंकि- "न स पुनरावर्त्तते" तेषामिह न पुनरावृत्तिः "इत्यादि श्रुति का विरोध होता है, और उस जीव के कर्मों का नाश भी हो जाता है इस मत का प्रतिवाद करते हैं कि-मुक्ति के बाद भी प्रभु के अति अनुग्रह से जीव की स्थिति रहती है, अतः स्वरूपात्मक भजनानन्द की दित्सा के फलस्वरूप उसके स्वरूप आविर्भाव होता है। भगवदाधीनता बतलाने के लिए उक्त स्थिति में जीव के कर्तृत्व का उल्लेख नहीं किया गया है। ननूक्त न स पुनरावर्त्ततइत्यादि श्र तिविरोधः कर्माभावश्च बाधक इत्यत आह, स्वेनेति, स्वशब्दोऽत्र भगवद्वाची । तथा च भगवत्स्वरूपबलेनेवाविर्भाव इत्यर्थः । एवं सत्युक्त श्रुतिम यादामार्गविषयिणीति न विरोध इतिभावः । तेषामिह प्रपञ्चे न पुनरावृत्तिरस्तीतिहि श्रुतिराह । लीलायाः प्रपञ्चातीतत्वात् तत्राविर्भावस्य निषेधाविषयत्वादपिन विरोधः । अत्र प्रमाणाकांक्षायामाह-शब्दा

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