Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 712
________________ । ६२६ ) चितितन्मात्रण तदात्मत्वादित्यौडुलोमिः ।४।४॥६॥ __ "स यथा सैन्धवधनोऽनन्तरौवाह्यः कृत्स्नो रसघन एवं वा अरे अयमात्माऽनन्तरोबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञानधनः" इति श्रुतौ धनपदेन ज्ञानात्मकविग्रहात्मत्वं ब्रह्मणो बोध्यते । अन्यथा न वदेत् । प्रयोजनाभावात् । तथा च तादृशेन सह भोगकर्ता तादृशेनैव भाव्यमिति, चिति चिद्रूपे ब्रह्मणि, तन्मात्रेण चिन्मात्रेण रूपेण कामान् भुक्ते, नतु विग्रहेण । श्रुतौ जीवस्य तथात्वस्यानुक्तेः । पूर्णानन्दत्वाद् भगवतस्तत् संबंधेन तदानंदमनुभवतीत्यर्थः सम्पद्यते। चिदामत्वं जीवस्य यतो नैसर्गिकमित्यौडुलोमिराचार्योमनुते । “अशरीरं वा व" इति श्रुतिरेतादृशा अन्यविषयिणीतिज्ञेयम् । मुक्तिदशायां तदनुभवस्य भगवदिच्छाविषयत्वाभावान्नतथा। तथा चैतदेज्जातीयकानन्दानुभवोऽस्यभवत्वितिभगवदिच्छैव श्रुतौ कामशब्देनोच्यते। जैसे कि नमक की डली बाहर से भीतर तक एक रस है, वैसे ही यह आत्मा बाहर से भीतर तक प्रज्ञान धन हैं" इत्यादि वाक्य में धन पद से ब्रह्म को; ज्ञानात्मक विग्रहात्मकता निश्चित होती है। वैसे परमात्मा के साथ भोग करनेवाला भी वैसा ही हो सकता है, चिद्रूप ब्रह्म में चिन्मात्र रूप से ही वह कामनाओ का भोग करता है, विग्रह के साथ भोग नहीं करता। श्रुति में जीव का विग्रहवान रूप से उल्लेख भी नहीं है। भगवान पूर्णानन्द स्वरूप हैं उनके सम्बन्ध से जीव आनन्द का अनुभव करता है । जीव स्वभावतः चैतन्यस्वरूप है, ऐसा औडुलोमि आचार्य मानते हैं। "अशरीरे वा व सन्तं" इत्यादि श्रुति भी इसी प्रकार की है पर वह इससे भिन्न विषथ से सम्बद्ध है। मुक्ति दशा में जीव का अनुभव भगवत् इच्छा पर निर्भर रहता है, उस प्रकार के आनन्द का अनुभव जीव को भगवदिच्छा से ही होता है, यही बात काम पद से बतलाई गई है। एवमप्युपन्यासात् पूर्वभावादविरोधं बादरायणः । ४।४।७॥ परमाचार्यों बादरायणस्तु नैवं मनुते। "ब्रह्मविदाप्नोतिपरम्" इत्यस्योपन्यास एवमपिविग्रहवत्वेनापि कृतॊ यतः। तथाहि-“यो वेद निहितं गुहायां" इत्यत्र गुहाया उक्तत्वात्तस्या विग्रह एव सम्भवात् किंच, प्रथमान्तोपस्थितत्वेन प्राप्नोतीत्युक्त्या च ब्रह्मविदः परप्राप्ती स्वातन्त्रयं ज्ञाप्यते । तदेव ब्रह्मणासहेति पदेनोपन्यस्तम् तेन । ब्रह्मणोऽपि तत्समानक्रियावत्वं ज्ञाप्यते । परन्त्वप्राधान्येन ।

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