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यदि वह वैसा नहीं करता तो, मनमानी करने से वही कर्त्ता सिद्ध होगा। इस पर कहते हैं कि-श्रुति में सब जगह ब्रह्मत्व रूप से ही उपासना का विधान है, उपास्यों में, भगवद् विभूति रूप होने से ही उपासना की जाती है, शुद्धब्रह्मरूपों की वैसी ही उपासना होती है, इस प्रकार श्रुति ब्रह्मत्व उपासना कर फल बतलाती है। जो लोग प्रतीक को अवलम्ब मानकर उपास्य में ब्रह्मता मानते हुए उपासना करते हैं उनको उपासना का फल नहीं बतलाती। इस प्रकार की उपासना वेद विहित है तथा इसके फलस्वरूप उपासकों को अचिरादि मार्ग की प्राप्ति भी होती है, किन्तु अमानव पुरुष ऐसे उपासकों को ब्रह्म प्राप्ति नहीं कराता अपितु शुद्धब्रह्मभाव मानकर ही जों उपासना करते हैं उन्हें ही ब्रहम प्राप्ति कराता है ऐसी बादरायणाचार्य की मान्यता है। इसमें कारण बतलाते हुए वे दो प्रकार से दोष बतलाते हैं । उनका कथन है कि-वस्तुतः जो ब्रह्मरूप है, उसमें अब्रह्मत्व को धारणा करना तथा उपासना के लिए उसमें ब्रह्मत्व की भावना करना दोनों ही दोष हैं ऐसे लोगों को ब्रह्मप्राप्ति -का अधिकार नहीं प्राप्त होता इसलिए ऐसे लोगों का अमानव पुरुष के द्वारा ब्रह्मप्राप्ति न कराना सुसंगत ही है। ऐसी श्रुति भी है-''जो ब्रह्म को असत मानकर चलता है वह असद् प्राप्ति ही करता है," जो अन्य प्रकार के ब्रह्म -स्वरूप को उससे विपरीत ही मानता है वह आत्महत्यारा चोर कौन सा पाप नहीं करता । "इत्यादि । इस प्रकार ज्ञान मार्गीय व्यवस्था बतलाकर भक्तिमार्गीय की भी उसी रीति से बतलाते हैं कि-"सर्वमद्भक्ति योगेन" से ज्ञात होता है कि-भक्तिमागीय जीव को ब्रह्मप्राप्ति में उपासना की अपेक्षा नहीं रहती और न प्रतीकादि की ही सम्भावना रहती है। "तत्र कथंचिद् यदि वांच्छति" इस वाक्य से ज्ञात होता है कि-इच्छामात्र से भक्तियोगी, अचिरादि लोकों भोगों के बाद, प्राक्तन् भगवद्भजन रूपी यज्ञ के प्रभाव से अमानवपुरुष द्वारा ले जाए जाते हैं । वस्तुतः भक्त को अमानव दिव्यपुरुष की अपेक्षा ही नहीं होती वह स्वतः ही ब्रह्मलोक की प्राप्ति कर लेता है, इसी भाव से "तत्व॒तुः" ऐसा प्रथमान्त प्रयोग सूत्रकार करते हैं ।
ननु "ब्रह्मणोऽधिकं न किंचिदस्ति," न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते "इति श्रुतेः । एवं सति छांदोग्ये सनत्कुमारनारदसंवादे-'" स यो नाम ब्रह्मेत्युपास्ये "इत्यादिना नामवाङ्गमनः संकल्पचित्तध्यानविज्ञानादीनां ब्रह्मत्वेनोपासनमुत्तरोत्तरं पूर्वस्मात् पूर्वस्माद् भूयस्त्वं चोच्यते अतो न ब्रह्मत्वं सर्वेषामुपास्यानां वक्तुं शक्यमिति चेत् । मैवम-विभ्रति रूपाणां नियतफलदातत्वाद येन रूपेणा