Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

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Page 698
________________ बादरिमतमेव साधीयः । न च ब्रह्मपदस्य मुख्यार्थत्वमुक्तरीत्यात्र सभवत्यतोऽत्रामुख्यार्थत्वमेवानुर्तव्यमिति चेत् । प्रतिपक्षी कहते हैं कि-परब्रह्म तो व्यापक और निविशेष हैं अतः उनके निकट पहुँचना असंभव है । जीव भी जिस समय अविद्या से आवृत्त रहता है उस समय तो वहाँ जा नहीं सकता, अविद्या का नाश हो जाने पर उसमें और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता, क्योंकि वह स्वरूप में अवस्थित हो जाता है, अतः उसके आने जाने की बात कथन मात्र ही है । यदि अविद्या से आवृत्त जीव दशा में जाने की बात मानी जाय तो जीव और परब्रह्म की अविद्या युक्त रूपनाम युक्तता सिद्ध होती है। यदि उपासना के फलस्वरूप जीव का गमन मानते हैं तो उपास्य को भी सगुण मानना होगा तभी उसकी प्राप्ति की बात उचित हो सकती है, फिर निर्गुण ब्रह्म विद्या के ज्ञाता तो वहाँ जा नहीं सकते । इसलिए बादरि का मत मानना चाहिए उसी से सब कुछ संगत होगा । ब्रह्मपद की मुख्यार्थता जैमिनि की रीति से स्वीकारना ठीक नहीं है यहाँ तो मुख्यार्थता का ही अनुसरण करना चाहिए। स्यादेतदेवं यद्योपाधिकमुपास्यरूपं जीवत्वं वास्याद् न त्वेवम् । प्रकृततावत्वं हि प्रतिषेधतीत्यादिभिस्तद्गुणसारत्वाच्च तद्व्यपदेश इत्याद्यधिकरणः श्रुत्यर्थनिर्णयेन ब्रह्मणिविशेषाणामौपाधिकत्वस्य जीवपुरुषोत्तमाभेदस्य च पुरस्तादेव निरस्तत्वात् । न च व्यापकत्वं गन्तव्यत्वे बाधकम् । प्रारब्ध भोग विना तत्प्रात्त्यसंभवात् यदा तत्र तद्भोगसमाप्तिस्तदा तत्प्राप्तिनिष्प्रत्यूहत्वात् । किं च उपास्यरूपाणां सर्वेषां निर्गुणत्वमेव उपासकस्य, परं सगुणत्वेन, तत्तारतम्यात् फलतारतम्यम् । यस्तु भगवदनुग्रहेण प्राकृतगुणरहितोऽभूत स निर्गुणब्रह्मविद्यावानित्युच्यते । तादृशस्यैव मुक्तिप्रकारद्वयमुक्तं, सद्योमुक्तिक्रममुक्तिभेदेन । “न तस्मात् प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रव समवलीयन्ते, ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति' इत्यादि श्रुतिस्तु प्रारब्धरहित विषया। निर्गुणब्रह्म विद्यावतोऽपि प्रारब्धभोगस्तु त्वयाऽपि वाच्योऽन्यथा प्रवचनासंभवेन ज्ञानमार्ग एवोच्छिद्येत् । "ते ब्रह्मलोकेतु परान्तकाल एव" येषां प्रारब्धभोगसमाप्तिस्तद्विषयिणीति मन्तव्यम् । अन्यथा “वेदांतविज्ञान" इत्यादि उक्तधर्म विशिष्टानां मुक्तौ विलम्बो नोपपद्ये इतिदिक् । उक्त शंका तो तभी हो सकती थी, जबकि ब्रह्म, नामधारी जीव ही उपास्य होता, सो तो है नहीं अतः शंका व्यर्थ है। "प्रकृतवत्वं हि प्रतिषेधति" इत्यादि तृतीय अध्याय के तथा "तद् गुणसारत्वात्तु तद्व्यपदेश" नोपपडो इतिदिक् । .

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