Book Title: Shrimad Vallabh Vedanta
Author(s): Vallabhacharya
Publisher: Nimbarkacharya Pith Prayag

View full book text
Previous | Next

Page 683
________________ ( ६०० ) भी कहते हैं ।" देवी सम्पद् विमोक्षाय" इस भगवद् वाक्य से भी यही निश्चित होता है कि जिनमें दैवी संपत्ति होती है वे देव हैं, उनके जाने के जो भी मार्ग हैं वे देवयान हैं । दूसरा मार्ग सामान्य है । इस प्रकार दूसरे तीसरे मार्गों की सिद्धि हो जाती है । उक्तरीति से लाघवमान कर एक मानना ठीक नहीं है | श्रुति स्वतः प्रमाण होती है, वह जब जिस रूप का वर्णन करती है, वहाँ उसी अर्थ की प्रतीति होती है उसमें दूसरा अर्थ करना शक्य नहीं है, लाघव गौरव के विचार करने का अबसर ही नहीं रहता । यदि कभी इनका विचार सामने आ भी जाता है तो उपसंहार में उसका समाधान हो जाता है । दूसरी बात यह है कि उक्त प्रसंग में, ब्रह्मवेत्ता की क्रममुक्ति गंतव्य मार्ग का उपदेश दिया गया है । उन उन लोकों में उनके लिए आनन्दानुभव करना आवश्यक है, उपासना के भेद से फलभेद आवश्यक होता है, अतः मार्गभेद होना भी स्वाभाविक है। सभी में एक रूप फल वाला उपसंहार ठीक नहीं है । किंच उपासने कर्मणि चोपसंहारः सभ्मतः । मार्गस्तु नान्यतररूपोऽतो 'यस्योपासकस्य येन मार्गेण गमनं स मार्ग उपदिश्यत इति नोपसंहारो युक्तः, विधेयत्वादपि तथा । एतद् यथा तथा पुरस्तान्निरूपितम्, उपसंहारोऽर्थाभेदाद् विधिशेषवत् समाने चेत्यत्र । एवं सति अचिष शब्देनार्चिरूपलक्षितो मार्ग उच्यते । आदिपदेनान्ये सर्वे मार्गाः संगृह्यन्ते इति नाऽनुपपत्तिः काचिदितिचेद् 'अत्रवदामः । अर्चिरादिम्य इत्युक्तं भवेत्त्वद्रीतिरेव चेद् अभिप्रेता भवेत्तस्मानवमित्यवधार्यते । अर्चिरादिनेत्येक वचनाऽन्यथानुपपत्त्या मार्गस्यैकत्वमवश्यमु कार्यमेवं सति श्रुतिसुयावन्ति पर्वाण्युक्तानि तानि सर्वाण्येकस्मिन्न वाचिरादि मार्गे वर्त्तमानान्यपियस्योपासकस्य यावत् पर्वभोगी भावी तं प्रति तावत्पवक्तिस्य यावतांतेषां स न भावी तं प्रति न तदुक्तिस्तद्भोगा भावादिति नामुपपन्न किंचिद् । उपासना कर्म में तो उपसंहार ठीक है, मार्ग का तो जो रूप निश्चित है वही ठीक है दूसरा हो नहीं सकता, जिस उपासक का जिस मार्ग से गमन होना चाहिये उसी मार्ग का उपदेश दिया गया है इसलिये उपसंहार एक होना ठीक नहीं है । ऐसा होना अविधेय भी है। इस पर जो कुछ कथ्य था उसका पहिले ही निरूपण कर चके हैं अर्थ में तो भेद है नहीं इसलिए उपसंहार एक ही है । अचिष शब्द से अचि उपलक्षित मार्ग का उल्लेख किया गया है। आदि पद से अन्यान्य मार्गों का उल्लेख है, इसलिये कोई असंगति नहीं है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734