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( ६०१ ) इस पर मैं कहूँगा कि-आचिरादि के उल्लेख में तुम्हारा कथन ही ठीक मान लिया जाय फिर भी उक्त धारणा नहीं बनती । अचिरादिना इस एक वचन से मार्ग की एकता अवश्य स्वीकारनी पड़ेगी श्रुति में जितने पर्व कहे गये हैं वे सब एक ही अधिरादिमार्ग में होते हुए भी, जिस उपासक को जिस पूर्व का भोग आवश्यक है उसकी दृष्टि से उस पर्व भोग का उल्लेख किया गया है और जिस उपासक को उस पूर्व भोग का उल्लेख किया गया है उसके लिये उसका उल्लेख नहीं किया गया है, अतः कुछ असंगति नहीं है ।
ननु त्वयाऽप्यनुक्तानां पर्वणां तत्र स्थितिं वदतोपसंहार एवोक्तो भवति प्रापकत्वेनेति चेत् स्यादेतदेवं यदि तस्यैवगन्तु गाय तदपि पर्वतत्रोच्येत । न त्वेवं किन्त्वेकवचनानुरोधान्मार्गक्ये निश्चिते यं प्रतियत् पर्वोच्यते तत्तत्रकठोक्तमेवेति नोपसंहारापेक्षा । अग्रेऽन्यत्रोक्तानां पर्वणामुक्तस्थले सन्निवेशोत्तयापि सूत्रकाराभिमत एक एव मार्ग इति ज्ञायते श्रुतौ सर्वत्र पूर्व परामर्थात् अपि तथा ।
तुम भी, जहाँ जिन पूर्वो का उल्लेख नहीं है वहाँ उपसंहार की एकता के आधार पर उनकी स्थिति मानते हो पर्वो को तुम प्रापकत्व भाव से मानते हो, यदि ऐसी बात थी तो भोग के लिए पर्व का उल्लेख वहाँ होना चाहिए था। बात तुम्हारी सही नहीं है, अपितु एकवचन के प्रयोग से ही मार्ग की एकता निश्चित होती है, जिसके लिये जिस पर्व के भोग की आवश्यकता है तदनुसार ही उल्लेख किया गया है, उपसंहार की कोई अपेक्षा नहीं है । आगे के सूत्रों में सूत्रकार अन्यत्र उल्लेख पर्वो के सन्निवेश की चर्चा करते हैं, उससे सूत्रकार का भी अभिमत मार्गक्य के सम्बन्ध में ज्ञात होता है । श्रुति में हर जगह, पूर्वपरामर्श के अनुसार भी ऐसा ही निश्चित होता है ।
वायुशब्दादविशेषविशेषाभ्याम् ।४।३।२।।
छांदोग्ये वायुर्न पठ्यते । कौशीतकि श्रुतौतु “स एतं देवयानं पन्थानमापद्याग्निलोकमागच्छति स वायुलोकं स वरूण लोकं स इन्द्रलोकं स प्रजापति लोकं स ब्रह्मलोकमिति वाद्वादयः श्रूयन्ते तन्नाच्चिषोऽग्नेश्चाभेदान्त विचारणीयमस्ति । वायुलोकं कस्माल्लोकात् गच्छति इत्याशंकायामाह, वायुशब्दादिति । "अच्चिषोऽहरह्न आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद् यान् षडुदंगेति मासाँस्तान्मासेभ्यः संवत्सरं संवत्सरांदादित्यम् “इत्यत्र संवत्सरलोकात् परस्ताद् वायुलोको