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( ५६२ ) वैसः" इत्यादि ऋचा के बाद ही "विष्णु के कर्मों को देखते हैं" इत्यादि से लीला में किये जाने वाले कर्मों को बतलाकर कहते हैं कि-"विष्णु के उस परम पद को भक्त लोग सदा देखते हैं" पुरुषोत्तम स्वरूप की जानकारी को ही सूरित्व कहते हैं, वह जानकारी भक्ति से ही होती है, अतः सूरि भक्त हैं। उन्हें सदा दर्शन होते हैं । यदि ऐसा न होता तो पूर्व की ऋचाओं से गोकुल में स्थित गौ आदि भगवद लीला के उपकरणों और भक्तों को सदा उसके दर्शन होते हैं ऐसा न कहते, इससे निश्चित होता है कि भगवान की नित्य लीला का नित्य भवत नित्य लीलाआनन्द लेते हैं। इसी से लीला की नित्यता सिद्ध होती है । इस सबका विश्लेषण हमने विद्वन्मण्डन में विशेष रूप से किया है।
एवं पुष्टिमार्गीय भक्त वृत्तान्तमुक्त्वा ज्ञानमार्गीयस्य तमाह
इस प्रकार पुष्टिमार्गीय भक्तों के वृत्तान्त को बतला कर ज्ञानमार्गीय को बतलाते हैं। ५. अधिकरण :___ तदोकोग्र ज्वलनं तत्प्रकाशितद्वारो विद्यासामर्थ्यात्तच्छषगत्यनुस्मृतियोगाच्च हार्दानुगृहीतः शताधिकया ।४।२॥१७॥
पूर्व भूतेषु तच्छुतेरित्यदिना मर्यादामार्गीयस्य वागादिलय उक्तोऽधुना तस्य जीवात्मनउत्क्रमण प्रकार उच्यते-"स एतास्तेजोमात्रा समभ्याददानो हृदयमे वक्रामतीति श्रुतेस्तस्यात्मन् ओक आयतनं हृदयं तदग्रंपूर्व प्रज्वलति, पूर्व तथाऽप्रकाशमानमपि तदा प्रकाशत इति यावत् । तदातत्प्रकाशितं द्वारं निर्गमनमार्गो यस्य तादृश उत्क्रामति यतः श्रुतिस्तथाह-"तस्य हैतस्य हृदयस्वागंप्रद्योतते तेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुषो वा मूर्नोवा" इत्यादि । यद्यप्येतावत् सर्वजीव साधारणं तथापि विद्वांस्तु तेतरवदितरनाड्या निष्कामति किन्तु शताधिकया एकशत् तस्या नाड्या मूर्धन्या निष्क्रामति "शतं चैका हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्द्धनमभिनिस्सृतका तयोर्ध्वमाषन्नऽमृतत्वमेति विस्वड्डन्या उत्क्रमणे" इति यतः श्रुतिराह । अत्र हेतुमाह-हार्द्धानुगृहीत इति हेत्वन्तर्गम विशेषणम् । “गुहां प्रविष्टौ परमेपराद्ध" इति श्रुतेहृदयाकाश संबंधीयः परमात्मा त दनुग्रहात् तथैव भवतीत्यर्थी । अनुग्रहे हेतुर्विद्यासामर्थ्यादिति तस्या विद्यायाः शेषभूतांगभूता या गतिः प्रव्रजनरूपातच्छेषभूतव या भगवस्मृति परम्परा च ताभ्यां च यो भगवदनुग्रहस्तेन तथेत्यर्थः ।