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चतुर्थ अध्याय तृतीय पाद
१ अधिकरण :
अचिरादिना तत्प्रथितेः ।४।३।१॥
ननु ज्ञानमार्गीयस्येव मर्यादामार्गीय भक्तस्याप्यचिरादिमार्गेण व गमनम्, उत सद्योमुक्तिरेव भवति ? इति संशयः । तत्र यथा ज्ञानिनो नियमाभावस्तथाऽत्रापीति प्राप्ते आह-अचिरादिमार्गेण तस्य ज्ञानमार्गीयस्यैवोत्कर्ष कथनात् स एव तेनं मार्गेण गच्छति । न तु भक्तोऽपीत्यर्थः। तथाहि-पंचाग्निविद्याप्रकरणे-तद् य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धातप इत्युपासते तेचिषमभिसंभवन्ति अर्चिषोऽहरह आपूर्यमाणपक्षम्" इत्युपक्रमे भक्तातिरिक्तानेव अधिकृत्य तथा गतिरुच्यते। स्मृताप्यग्निौँतिरह इत्यत्र ब्रह्मविदोजना इति वचनेन ज्ञानमार्गीयस्यैव सपन्था इत्युच्यते ।
ज्ञानमार्गीय की तरह मर्यादामार्गीय भक्त का भी अचिरादिमार्ग से गमन होता है, अथवा तत्काल मुक्ति हो जाती है ? ऐसा संशय होने पर कह सकते हैं कि जैसे ज्ञानी के लिए कोई नियम नहीं है वैसे ही मर्यादामार्गीय भक्त में भी होंगा । इस पर सूत्रकार सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि - अचिरादिमार्ग से, ज्ञानमार्गीय का ही उत्कर्ष कहा गया है, वही उस मार्ग से जाता है, भक्त भी जाता हो सो बात नहीं है । पंचाग्नि विद्या के प्रकरण में उसका उल्लेख भी है-'जो इस प्रकार जानकर श्रद्धा तप के द्वारा अरण्य में उपासना करते हैं वे अचिरादिमार्ग में जाते हैं" इत्यादि उपक्रम में भक्तों के अतिरिक्त जीवों की ही गति का उल्लेख है । स्मृति में भी “अग्निज्योति" इत्यादि में ब्रह्मविद की गति कही गई है जो कि ज्ञानमार्गीय का ही मार्ग है ।
अथेदं चिन्त्यते सामोपनिषत्सु पठ्यते-“अथ या एता हृदयस्य नाड्मस्ताः पिंगलस्याणिम्नस्तिष्ठति शुक्लस्य नीलस्य पीतस्य लोहितस्येत्यसौ वा आदित्यः पिंगलः" इत्युपक्रम्य आदित्य रूपस्य पिंगलस्य रश्मिरूपत्वं नाडीनां उक्त्वा अग्रे वदति-'अथ यत्रैतदस्माच्छरी रादुत्क्रामत्यर्थतैरेवरश्मिभिरूल आक्रामत" इति नाडीरश्मिसंबंधेनैका परलोकगतिः श्रयते । अचिरादिका चान्या,