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( ५६५ ) ननु “यत्र काले त्वनावृत्तिमिति" कालप्राधान्येनोपक्रम्य 'अग्नि ज्योतिरह शुक्लः षण्माषा उत्तराणम्, तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्मब्रह्माविदोजनाः" इति भगवद्वाक्याद् ब्रह्मविदोऽप्युक्तकालाऽपेक्षाअस्तीत्याशंक्य विषयभेदेन समाधत्त
"जिस काल में जाने से लौटना नहीं होता" ऐसा कालप्राधान्य का उपक्रम करते हुये 'अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण में ब्रह्माविद जाते हैं" इत्यादि भगवद् वाक्य में तो ब्रह्मविद के लिए भी काल की अपेक्षा बतलाई गई है, इस आशंका का विषयभेद की दृष्टि से समाधान करते हैं
योगिनः प्रतिस्मयते स्माःचैते ।४।२।२१॥
ज्ञानमार्माद् योगमार्गो हि भिन्नः । तथा च योगिनमुद्दिश्यव कालविशेष स्य गतिविशेष हेतुत्वं स्मर्यते, न तु ज्ञानमार्गीयस्य श्रौतस्य । इतरनिरपेक्षत्वात् । न च योगसांख्ये अपि श्रौते एवेति वाच्यम् । यतः स्मात एते । चोहेत्वर्थे । एते योगसांख्ये अग्निज्योतिधू मोरात्रिरिति वाक्यद्वयोक्तगती वा इदंतु श्र त्युक्तदेवम्यान पितृयानातिरिक्त मार्गमिभिप्रेत्य समाहितम् । ते एव चेदत्राप्युच्येते शब्दभेदेन तदा न विरोधः ।
ज्ञानमार्ग से योगमार्ग भिन्न है । योगी के लिये हो काल विशेष की गति विशेष का उक्त भगवद् वाक्य में उल्लेख है, श्रौत ज्ञानमार्ग का उल्लेख नहीं है । योग और सांख्य भी श्रौत ही है ऐसा नहीं कह सकते, ये स्मात्त हैं। "अग्निज्योति" इत्यादि दो वाक्यों में योग सांख्य को गति का ही उल्लेख है। श्रुति में दक्षिणायन उत्तरायण को पितृ और देवम्यान नाम से उल्लेख किया गया है, स्मृति में और श्रति में केवल नाम का ही भेद है अतः कोई विरोध नहीं है।