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( ५६४ ) करके आगे-'नमभित आसीना" आदि ऋचा पढ़ते हैं, इसमें "अत्र तमभित" इत्यादि से तो सर्वसाधारण की उत्क्रान्ति का उल्लेख है, पूर्व में सूर्य से सम्बद्ध पिंगल रश्मियों से उर्वगमन का उल्लेख है । अब शसंय होता है कि-हृदय के अग्र प्रकाश आदि जैसे सामान्य जीवों के भी होते हैं और भगवत्कृपा से ज्ञानी की विलक्षण गति होती है वैसे ही र दिमयों के सहारे जाने वाले सामान्य जीवों से ज्ञानी का क्या कोई विलक्षण गति होती है अथवा वो भी रश्मि के सहारे ही जाते हैं ? इस पर निर्धारण करते हुए सूत्रकार कहते हैं किज्ञानी भी रश्मियों के सहारे ही गमन करते हैं।
निशिनेतिचेन्न सम्बन्ध स्य यावद्देहभावित्वाद्दर्शयति च ।४।२।१९॥
विदुष उत्क्रमणे हा नुग्रहकृतो यथा विशेषस्तथाकाल विशेषकृतोऽपि विशेषो भविष्यति इत्याशंक्य तन्निरासमाह-तत्रहोरात्र कृतोऽयनकृतो वा स भवेत् । तत्राद्य कृतो नास्तीत्याह, नेति, तत्र हेतुः सम्बन्धस्येत्यादि । अनुग्रह हेतुभूतो यः पूर्वोक्तो गत्यनुस्मृतिसंबंधस्तस्य यावद्दे ह भावित्वात् तत्कार्यस्यानुग्रहस्यापि तथात्वात् कालस्याप्रयोजकत्वमित्यर्थः । अत्र प्रमाणमाह-दर्शयति यतः श्रुति:-"तमेवविदित्वा मुनिर्भवत्येतमेव प्रवाजिनो लोकमीप्सन्तः प्रवजन्ति" इति ।
ज्ञानी के उत्क्रमण में जैसे भगवदनुग्रह की विशेषता है वैसे ही काल विशेष का भी नियम होगा, इस संशय का निराकरण करते हुये सूत्रकार कहते हैं कि-ज्ञानी की गति, रात्रि दिन, किसी भी समय हो जाती हैं, रात्रि में न होती हो सो बात नहीं है, उनका संबंध प्रभु से हो जाता है । अतः भगवत्कृपा से वे हर समय बिना किसी प्रतिबन्ध के गमन करते हैं, ऐसा श्रुति का प्रमाण भी है-"उसे जानकर मुनि हो जाता है, यहाँ से जाकर वह जहाँ भी चाहता हैं उस लोक में जाता हैं" इत्यादि ।
हार्दानुग्रहस्य मुक्तिहे तोविद्यमानत्वादयनविशेषोऽथप्रयोजक इत्याह
ज्ञानी की नुक्ति भगवत्कृपा पर अवलंबित है अतः उत्तरायन में ही उनकी गति हो ऐसा भी कोई नियम नहीं है यही सूत्रकार बतलाते हैं
अतश्चायनेऽपिवक्षिण ।४।२।२०।। अर्थात् दक्षिणायन में भी उनकी गति होती है।