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"तेऽचिषमभिसंभवंति" इत्यादि श्रुत्युक्ता "स एनं देवयानं पन्थानमापद्याग्निलोकमागच्छति" इति चेतरा । "सूर्यद्वारेण ते विरजा प्रयन्ति" इति चान्या । “स यदा वैपुरुषो अस्माल्लोकात् प्रति स वायुमागच्छति" इति चेतरा । एवमनेकेषु मार्गेषु सत् स्वचिरादेरेवोक्तिः कुत ? इति ।
अब विचारते हैं कि सामोपनिषद् के "एता हृदयस्य नाड्यस्ताः" इत्यादि वाक्य के उपक्रम में, पिंगल रूप वाले आदित्य की रश्मियों के रूप में नाडियों को बतलाकर "यौतदस्माच्छरीरात्" इत्यादि में नाडीरश्मि के संबंध से एक परलोकगति का वर्णन किया गया है। "तेऽचिषमभिसंभवंति" इत्यादि श्रुति से दूसरे अचिरादिमार्ग का उल्लेख मिलता है । "ये एनं देवयानं पन्थानमापद्य" इत्यादि में एक और मार्ग का वर्णन है । “स यदा वपुरुषो अस्माल्लोकात्" इत्यादि में भी एक मार्ग का वर्णन है तथा "सूर्यद्वारेण ते विरजा प्रयन्ति" में भी एक अन्य मार्ग की चर्चा है इस प्रकार अनेकों मार्गों के रूप में अचिरादि के उल्लेख का क्या तात्पर्य है ? । - तत्र सर्वेषां पारिभाषिकमचिरादित्वमतएवार्थतयोः पंथोर्न कतरेण च नेति मार्गद्वयभ्रष्टानां अतिकष्टं “जायस्व म्रियस्व" इति तृतीय स्थानमित्युक्तं अन्यथाऽनेकेषां मार्गाणां उक्तानां श्रूयमाणत्वादस्य तृतीयत्वं नोच्येताऽतः प्रकरणभेदाद् भिन्नोपासन शेषत्वान्मिथोऽनपेक्षा भिन्नाएवैते मार्गा ब्रह्मप्रापका इति मंतव्यमिति चेत्तत्रोच्यते- नहीयं परिभाषा सर्वेषु श्रुतास्ति' यतस्तथोच्यते । 'अतोलाघवादनेकपर्व विशिष्ट एकएव मार्ग इति मन्तव्यम् , नतु पर्वभेदेन मार्गभेद इति, गौरव प्रसंगात् ।
उक्त सभी पारिभाषिक हैं, अतः सभी अचिरादि मार्ग हैं, इसीलिए "एतयोः पंथोर्न कतरेण च न" इत्यादि वाक्य से दोनों मार्गों से भ्रष्ट दुःखी जीवों के लिए "जायस्व म्रियस्व" इत्यादि से तीसरा मार्ग बतलाया गया है। अन्यथा अनेकों मार्गों में बतलाये गए गमन के कथन में इसकी तीसरी गणना नहीं की जाती इसलिए, प्रकरण भेद से भिन्न उपासनाओं के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले ये विभिन्न मार्ग हैं, इनमें परस्पर कोई संबंध नहीं है, ये सभी मार्ग ब्रह्म ज्ञापक हैं। इस मान्यता पर कहते हैं कि यह परिभाषा हर जगह नहीं सुनी जाती इसलिए विभिन्न रूपों से मार्ग का उल्लेख किया गया है, अनेक पर्व वाला एक ही मार्ग है, ऐसा ही मानना चाहिए, पर्व भेद से मार्ग भेद मानना उचित नहीं है, ऐसा मानने से गौरव (दोष) होगा।